महापर्व के मूल में वैदिक सोमयज्ञ, नवानेष्टि यज्ञ का ही स्वरूप निहित है। वैदिक यज्ञों में सोम यज्ञ सर्वोपरि है, और प्राचीन काल में प्रचुर मात्रा में उपलब्ध सोमलता का रस निचोड़ कर उससे संपन्न किये जाने वाले यज्ञ को सोमयज्ञ कहा जाता था। प्राचीन काल में सामूहिक यज्ञ की परम्परा थी। ऋतुओं के संधिकाल में होने वाले रोगों के निवारणार्थ भी यज्ञ किये जाने की परिपाटी थी । यह होली भी शिशिर और बसंत (वसंत) ऋतु का योग अर्थात संधिकाल में मनाया जाने पर्व है। होली नवान्न वर्ष का प्रतीक है।
होली का पर्व वास्तव में वैदिक यज्ञ है, परन्तु आज इसका वैदिक स्वरूप खो गया है और अब यह सिर्फ हास -परिहास, ठिठोली, चुहलबाजी, छेड़छाड़, मौजमस्ती और मिलने-जुलने का प्रतीक लोकप्रिय पर्व बनकर रहा गया है। वैदिक ग्रन्थों के अध्ययन से इस सत्य का सत्यापन होता है कि इस महापर्व के मूल में वैदिक सोमयज्ञ, नवानेष्टि यज्ञ का ही स्वरूप निहित है। वैदिक यज्ञों में सोम यज्ञ सर्वोपरि है, और प्राचीन काल में प्रचुर मात्रा में उपलब्ध सोमलता का रस निचोड़ कर उससे संपन्न किये जाने वाले यज्ञ को सोमयज्ञ कहा जाता था। वैदिक ग्रन्थों में इसके विकल्प के रूप में प्रमुखतः पुतिक, अर्जुन आदि वृक्ष प्रस्तुत किये गये हैं। अर्जुन वृक्ष को हृदय के लिए अत्यंत लाभकारी माना गया है। सोमरस इतना शक्तिवर्धक और उल्लासकारी होता था कि उसका पान कर देव और मनुष्यों को अमरता जैसी अनुभूति होती थी। दैनिक होम यज्ञों के साथ ही सामूहिक यज्ञों में समिधा के साथ सोम, अर्जुन, पूतिक, सूखे मेवे आदि के साथ ही यज्ञ हवन में नवान्न की आहुति दिए जाने का मुख्य रूप से विधान था। भारत में प्रचलित चातुर्मास्य यज्ञ परम्परा में आषाढ़ मास (गुरु पूर्णिमा), कार्तिक मास (दीपावली), फाल्गुन मास (होली) तीन काल निर्धारित हैं –
फाल्गुन्या पौर्णामास्यां चातुर्मास्यानि प्रयुञ्जीत मुखं वा एतत सम्वत् सरस्य यत् फाल्गुनी पौर्णमासी आषाढ़ी पौर्णमासी। अर्थात- फाल्गुनी पौर्णमासी, आषाढ़ी पौर्णमासी और कार्तिकी पौर्णमासी को जो यज्ञ किये जाते हैं वे चातुर्मास्य कहे जाते हैं ।
इन अवसरों पर आग्रहायण या नव संस्येष्टि यज्ञ किये जाने की परिपाटी है। रोग निवारण के लिए भी यज्ञ सर्वोत्तम साधन माना गया है। प्राचीन काल में सामूहिक यज्ञ की परम्परा थी। ऋतुओं के संधिकाल में होने वाले रोगों के निवारणार्थ भी यज्ञ किये जाने की परिपाटी थी । यह होली भी शिशिर और बसंत (वसंत) ऋतु का योग अर्थात संधिकाल में मनाया जाने पर्व है। होली नवान्न वर्ष का प्रतीक है। वसंत ऋतु के नवान्न को यज्ञ हवन में आहुति देने के पश्चात ग्रहण करना ही प्राकृतिक पर्व होली का वैदिक विधान है। भारतीय संस्कृति में दान देकर अर्थात बांटकर खाने में बिश्वास किया जाता है। परमेश्वरोक्त ग्रन्थ वेद में अकेले खाने वाले को पापी कहा गया है-
केवलाघो भवति केवलादी ।
अर्थात- अकेला खाने वाला पापी होता है । इसलिए प्रसन्नतापूर्वक बाँट कर खाना चाहिए ।
उल्लेखनीय है कि अधजले अन्न को होलक की संज्ञा प्राप्त है, इसीलिए इस पर्व का नाम होलिकोत्सव पड़ गया। बसंत अथवा अन्य ऋतुओं में नये अन्न से यज्ञ अर्थात येष्ट किये जाने का विधान है। इसलिए बसंत ऋतु में इस पर्व का नाम वासन्ती नव सस्येष्टि अर्थात बसंत ऋतु के नवीन शष्य का यज्ञ है। इसका दूसरा नाम नव सम्वतसर है। वैदिक मत में नवान्न को सर्वप्रथम अग्निदेव व पितरों को समर्पित कर तत्पश्चात स्वयं भोग लगाने की परम्परा है। एक प्रकार से भारतीय कृषि कर्म दो वर्ग, दो भागों- वैशाखी और कार्तिकी में बंटा हुआ है। इसी को क्रमशः वासन्ती और शारदीय अर्थात रवि (रबी) और खरीफ की फसल कहते हैं। फाल्गुन पूर्णमासी वासन्ती फसल का आरम्भ है। इस काल तक चना, मटर, अरहर व जौ आदि नवान्न पक चुके होते हैं। इसीलिए सर्वप्रथम पितरों, देवों को समर्पित किये जाने की परम्परा है-
अग्निवै देवानाम मुखं।
अर्थात- अग्नि देवों, पितरों का मुख है। जो अन्नादि शाकल्यादि आग में डाला जायेगा। वह सूक्ष्म होकर पितरों देवों को प्राप्त होगा।
प्राचीन काल में वासन्ती नव सस्येष्टि यज्ञ को होला, होलक और होलाका के नाम से भी जाना जाता था। अग्नि में भूने हुए अधपके फली युक्त फसल को होलक अर्थात होला कहां जाता है, अर्थात वैसे फसल, जिन पर छिलका होता है, जैसे हरे चने आदि । भारत देश में ऋतु के अनुसार मुख्यतः दो प्रकार की फसलें होती हैं- खरीफ व रवि । खरीफ फसल में मुख्यतः धान, बाजरा, मक्का, कपास, मूँगफली, शकरकन्द, उरद, मूँग, मोठ लोबिया (चँवला), ज्वार, तिल, ग्वार, जूट, सनई, अरहर, ढैंचा, गन्ना, सोयाबीन, भिण्डी आदि शामिल हैं, तो रवि फसल के रूप में गेहूँ, जौं, चना, सरसों, मटर, बरसीम, रिजका, मसूर, आलू, लाही, जंई आदि की खेती शामिल हैं। रवि की फसल में आने वाले सभी प्रकार के अन्न को होला कहते है। बसंत ऋतु में आई हुई रवि की नवागत फसल को होम अर्थात हवन में डालकर फिर श्रद्धापूर्वक ग्रहण करने का नाम होली अर्थात प्राचीन कालीन वासन्तीय नवसस्येष्टि होलकोत्सव है । वसंत ऋतु के नये अन्न अर्थात अनाजों की आहुति से किया गया यज्ञ ही वासन्ती नव सस्येष्टि है। और होली होलक का अपभ्रंश है। होलक के सम्बन्ध में भाव प्रकाश में कहा गया है-
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तृणाग्निं भ्रष्टार्थ पक्वशमी धान्य होलक: (शब्द कल्पद्रुम कोष) अर्धपक्वशमी धान्यैस्तृण भ्रष्टैश्च होलक: होलकोऽल्पानिलो मेद: कफ दोष श्रमापह।
अर्थात―तिनके की अग्नि में भुने हुए अर्थात अधपके शमो-धान्य अर्थात फली वाले अन्न को होलक कहते हैं। यह होलक वात-पित्त-कफ तथा श्रम के दोषों का शमन करता है।
उल्लेखनीय है कि किसी भी अनाज के ऊपरी पर्त को होला या होलिका कहते हैं। जैसे-चने के पट पर पर्त अर्थात परत, मटर के पट पर पर्त, गेहूँ, जौ के गिद्दी अर्थात गुद्दे से ऊपर वाला पर्त। इसी प्रकार चना, मटर, गेहूँ, जौ की गिदी अर्थात खाने योग्य गुद्दे को प्रह्लाद कहते हैं। चनादि का निर्माण करने के कारण होलिका को माता कहते हैं –

माता निर्माता भवति।
यदि अनाज का यह उपरी परत अर्थात पर्त पर होलिका न हो तो चना, मटर रुपी प्रह्लाद का जन्म नहीं हो सकता। जब चना, मटर, गेहूँ व जौ को अग्नि में भुनते हैं, तो वह पट पर अर्थात गेहूँ, जौ की ऊपरी खोल अर्थात परत पहले जलता है, इस प्रकार प्रह्लाद बच जाता है। होलिका रुपी पट पर पर्त के द्वारा स्वयं अपने को आगे प्रस्तुत कर प्रह्लाद अर्थात चना-मटर आदि को बचा लिए जाने पर प्रसन्नतापूर्वक जय घोष करते हुए लोग होलिका माता की जय कहकर जयकारा लगाये जाने की परिपाटी है। वर्तमान का होलिकोत्सव भी इसी परम्परा का संवाहक है। होली में जलाई जाने वाली आग यज्ञ वेदी में निहित अग्नि का प्रतीक होने के कारण वेदी के समक्ष एक गुलर की टहनी गाड़ी जाती थी, क्योंकि गुलर का फल गुण की दृष्टि से सर्वोपरि माना जाता है। लेकिन कालान्तर में गुलर के वृक्ष की प्राप्यता अल्पप्राय हो जाने के कारण इसके स्थान पर अन्य वृक्षों की टहनियां काम में ली जाने लगीं, इसी क्रम में एरण्ड वृक्ष की लकड़ी का प्रयोग किया जाने लगा। प्राचीन काल में यज्ञ वेदी में गाड़ी गई गूलर आदि पेड़ के टहनी के नीचे बैठकर वेद पढ़ने वाले वेद के मन्त्रों का पाठ किया करते थे, जल से भरे कलश लिए हुए स्त्रियां नृत्य करती थीं, सभी कोण में दंदुभि, नगाड़े भी बजाए जाते थे, इस नृत्य के साथ ही साथ स्त्री- पुरुष मिलकर विभिन्न प्रकार के वाद्य यंत्रों को बजाकर मनोरंजन किया करते थे। अर्थात इस दिन यज्ञ अनुष्ठान के साथ ही हर्ष और उल्लासमय वातावरण उपस्थित करने के लिए अनेक मनोविनोद पूर्ण कृत्य किये जाते थे। घरों में स्त्रियां विभिन्न प्रकार के मिष्टान्न व पकवान बनाती थीं। वैदिक यज्ञ के साथ यह विधान वर्ष भर की एकरसता को दूर कर स्वस्थ मनोरंजन का वातावरण प्रदान करने के उद्देश्य से किया जाता था। कालान्तर में मुख्य रूप से एक वैदिक यज्ञ के रूप में आरंभ हुआ होली अर्थात वासंतीय नवान्नेष्टि यज्ञ पर्व शिव-कामदेव- रति, ढूंढिका, होलिका- भक्त प्रहलाद आदि आख्यानों के साथ जुड़कर मदनोत्सव अथवा बसंतोत्सव नाम का समावेश इसी में हो गया। आज भी फाल्गुन शुक्ल अष्टमी से पूर्णिमा तक आठ दिन तक मनाई जाने वाली होलाष्टक में भारत के कई स्थानों में होलाष्टक शुरू होने के दिन या फिर फाल्गुन पूर्णिमा के दिन ही सायंकाल में पेड़ की शाखा गाड़ने की प्रथा जारी है। सभी लोग इसके नीचे होलिकोत्सव मनाते हैं। ऐसी ही स्थिति अक्षत अर्थात अखत तथा आहुति अर्थात आखत के परम्परा का भी है। वर्तमान में भी होली जलाने के समय अथवा पूजा पाठ करने के समय उसमें अक्षत अर्थात अखत डालने की परम्परा है। अक्षत का अपभ्रंश रूप ग्राम्य अंचलों में अखत के रूप में आज भी प्रचलित है। अक्षत चावलों को कहा जाता है, और भारत के अधिकांश ग्रामीण क्षेत्रों में वर्तमान में भी यह अखत नाम से जाना जाता है। कई क्षेत्रों में यज्ञ हवन में दी जाने वाली आहुति को आखत कहा जाता है। आहुति में हवन की सामग्री व समिधा के साथ ही कुछ न कुछ अवश्य देने का प्रावधान है। सोम, अर्जुन, सूखे मेवे, नवान्न आदि के अभाव अर्थात इनमें से कुछ न मिलने की स्थिति में चावल का आहुति देने का प्रचलन चल पड़ा। आज के मन्दिरों अथवा देवालयों में श्रद्धालुओं के द्वारा की जाने वाली परिक्रमा से तो सभी परिचित हैं। यह आहुति और फिर परिक्रमा सब कुछ यज्ञ की प्रक्रिया है, और यह सब यज्ञ में ही होती है। और यही कुछ वासंतीय नवान्नेष्टि यज्ञ पर्व में होता था।
इससे स्पष्ट है कि यह पर्व शुद्ध रूप से प्राकृतिक पर्व है, ऐतिहासिक नहीं है, परन्तु वैदिक सत्य ज्ञान से दूर होने के कारण शनैः- शनैः समाज का स्मृतिलोप होते जाने के परिणाम स्वरूप कालान्तर में प्राचीनकालीन होला वर्तमान का होली बन गया है । प्रहलाद-होलिका से सम्बन्धित पौराणिक कथा भी आलंकारिक, पूर्णतः अवैज्ञानिक और तर्क पर तनिक भी नहीं ठहर सकने वाली कथा है, इसलिए प्रहलाद- होलिका से सम्बन्धित कथा को होली पर्व से ऐतिहासिक रूप से जोड़ना अनुपयुक्त है। पुण्यात्मा अथवा पापी, किसी भी मनुष्य के अग्नि पर बैठने से अग्नि उसे दग्ध करेगा ही अर्थात जलाएगा ही, क्योंकि अग्नि का गुण व कार्य प्रज्वलन करना अर्थात जलाना है, और वह इस कार्य हेतु अर्थात जलाने के लिए किसी से तप, निष्ठां धरम आदि नहीं पूछती। कथा के अनुसार होलिका अपने भतीजे प्रहलाद को लेकर अग्नि में बैठी, तो अग्नि द्वारा दोनों को ही जल जाना चाहिए था, परन्तु ऐसा नहीं हुआ। वरदान स्वरूप अग्नि के दाह व ज्वाला में घुसने के बाद भी अग्नि से बच जाने के लिए प्राप्त वस्त्र को अपने शरीर से ढंककर अपने भतीजे प्रहलाद को लेकर अग्नि कुण्ड में बैठी सिर्फ होलिका ही अग्नि से जली और उसके गोद में बैठा उसका भतीजा बच गया।
यह कथा आलंकारिक रूप में अंकित है। इस आलंकारिक शिक्षाप्रद कथा का अभिप्राय यह है कि माया जाल में फंसे रहने वाले व्यक्ति का नाम हिरण्यकशिपु है अर्थात जो सदैव सोना चांदी धन दौलत को ही देखे उसमें ही ग्रसित रहे। निरूक्त में कहा गया है-
हिरण्यमेव पश्यति हिरण्यकशिपु ।
निरुक्त के अनुसार आदि और अंत के अक्षरों का विपर्यय होकर पश्यक का कश्यप बन जाता है। ऐसे मदांध लोगों का अंत में बुरी तरह से नाश होता है। दूसरी और परमात्मा की भक्ति में सदा लीन रहने के कारण जिसको आनंद लाभ होता है, उसे प्रहलाद कहते हैं। प्रहलाद स्वयं सताया जाने पर भी सब की मंगल कामना ही करता है। उसका यही कहना था कि किसी का कुछ भी हरण नहीं करना चाहिए। जो लोग माया में ही रत रहते हैं, और परमात्मा की सत्ता से इनकार करते हैं उनका कभी भी आदर नहीं करना चाहिए। अपने चित को निर्मल बनाकर परमात्मा की शरण में जाना चाहिए और इस प्रकार आचरण करते हुए भवसागर से पार कर तर जाना चाहिए।
होली के द्वितीय दिन की रंग-गुलाल खेलने की प्रथा भी एक प्राकृतिकोत्सव ही है। रासायनिक पदार्थों और प्रदूषण से बचते हुए आपसी मेल -मिलाप, एक दूसरे से प्रेम- सम्मान, शत्रुता भूलकर प्राकृतिक उपहार स्वरूप वसंत ऋतु में फूलने वाली फूलों का चूर्ण बनाकर उससे प्राप्त रंग को ससम्मान प्रसन्नता पूर्वक गले लगकर मलना, लगाना किसी प्राकृतिकोत्सव से कम नहीं । आयुर्वेद के अनुसार वसंत ऋतु में होलक अर्थात नवान्न को भून कर खाना तथा पलाश आदि फूलों के पानी से स्नान करना लाभदायक माना गया है। इसलिए भूने हुए नवान्न का सेवन और पलाश आदि फूलों को रात्रि में पानी में भीगो कर उससे प्राप्त पानी से सुबह स्नान करना चाहिए। ऐसे में हम सबों को परस्पर मिलकर इस होली रुपी विशाल यज्ञ को सम्पन्न करने के लिए अपने घर से स्वयं की अग्नि ले जाकर स्वयं आहुति देकर मन, वायु और पर्यावरण की शुद्धि के लिए यज्ञ हवन में छोटी सी आहुति दे स्वयं की कल्याण कामना हेतु परमात्मा से प्रार्थना कर होलिकोत्सव को संसार के लिए शुभ, सुखद व कल्याणप्रद बनाने में सहभागी बनना ही चाहिए।
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