भोपाल। भाजपा में करीब डेढ़ दशक बाद नई पीढ़ी का निर्माण और नए चेहरों को स्थापित करने का बड़ा काम कर संगठन महामंत्री सुहास भगत की सम्मानजनक संघ वापसी सुनिश्चित हो गई.. अंतर्विरोध के बावजूद सख्त फैसलों के साथ यह बदलाव संगठन में साफ देखा जा सकता है.. तो भविष्य की सत्ता में भी नए मापदंड बनाने के साथ नई जमावट की कवायद तेज कर गए है.. सुहास भगत ने जिस काम को प्राथमिकता और चुनौती के तौर पर हाथ में लिया आगे बढ़ाया उस पर प्रदेश प्रभारी मुरलीधर राव, राष्ट्रीय सह संगठन महामंत्री शिव प्रकाश मुहर लगाते हुए देखे जा सकते हैं.. suhas bhagat bjp rss
चुनाव जीतने में सक्षम उन्हें चिन्हित कर नए चेहरों में निखार लाने के लिए जरूरी संगठन में बड़े बदलाव की जरूरत उन्होंने महसूस किया.. राष्ट्रीय नेतृत्व की गाइडलाइन और रणनीति से जुड़े सुहास के इस काम पर अमित शाह से लेकर जेपी नड्डा बीएल संतोष की पैनी नजर बनी हुई है .. समय-समय पर जिस का मूल्यांकन किया जाता रहा.. डेढ़ दशक के सत्ता सुख से जुड़े कार्यकाल में सामने आए दूसरे संगठन महामंत्रियों की तुलना में बतौर प्रचारक सुहास का ही संकल्प संघ में सम्मानजनक वापसी का पूरा हुआ..
संघ की कर्णावती में हुई अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा में नए दायित्व के साथ सुनाए गए इस फैसले से प्रचारक रहते सुहास को जो सम्मान मिला वह संदेश छोड़ गया कि भगत पर संघ का भरोसा बरकरार है.. भाजपा में रहते हुए कितने फिट और हिट इसका मूल्यांकन किया जा रहा और भविष्य में किया जाता रहेगा.. क्या खोया क्या पाया का आकलन व्यक्तिगत तौर पर उनके लिए जरूरी.. संघ की अपेक्षाओं से लेकर कार्यकर्ताओं की भावनाओं तक उनका स्वभाव, कार्यशैली का मूल्यांकन होना भी चाहिए..
6 साल में उनके फैसलों से जरूरी नहीं सभी संतुष्ट .. कुछ नाराज भी हुए लेकिन कुछ अपवाद और अपेक्षाएं छोड़ दें तो सुहास ने अपना काम संगठन में कर दिया.. भविष्य की भाजपा की जमीन तैयार कर दी गई है .. समय के साथ जिसमें परिवर्तन भी जरूरी.. बदलाव के दौर से गुजर रही भाजपा में उनके फैसलों से इत्तेफाक नहीं रखने वाले भी खूब मिल जाएंगे.. जीत हार के अलावा दूसरी उपलब्धियों के साथ नाकामियों को भी गिनाए जा सकता है.. लेकिन भविष्य की भाजपा के निर्माण का बड़ा लक्ष्य लगभग वह पूरा कर गए.. सत्तामुखी संगठन में जरूरी बदलाव के साथ सत्ता को संगठनगामी बना दिया..
लंबे समय तक सरकार में रहते मंत्रियों, विधायकों ने संगठन व्यवस्था की महत्वपूर्ण कड़ी जिला अध्यक्षों की जो अनसुनी की उन्हें अब मंडल अध्यक्षों का भी भरोसा जीतना होगा.. भाजपा गणेश परिक्रमा और अपने आका और संरक्षणदाता से भले ही पूरी तरह अभी भी मुक्त नहीं हो पाई लेकिन पट्ठावाद के साथ परिवारवाद में बड़े बदलाव से इनकार नहीं किया जा सकता.. सीमित कार्यकाल में तीन अध्यक्षों नंदकुमार सिंह चौहान, राकेश सिंह और विष्णु दत्त के साथ काम कर चुके सुहास भगत ने शिवराज को मुख्यमंत्री तो नेता प्रतिपक्ष गोपाल भार्गव को प्रदेश अध्यक्ष की मौजूदगी में शिवराज की सड़क की राजनीति से लेकर संगठन क्षमता को भी बहुत करीब से देखा..
पार्टी फोरम पर चिंतन मंथन, बंद कमरे में 121 डिस्कशन के साथ कार्यकर्ताओं के बीच प्रवास में कोई कसर नही छोड़ी.. क्षेत्र प्रचारक अरुण जैन के भरोसेमंद सुहास भगत ने दीपक विस्फुते की कसौटी पर भी खरा उतर कर दिखाया.. भाजपा में वह भी सरकार में रहते व्यक्तिगत तौर पर परिवार या परिचितों के लिए ट्रांसफर, पोस्टिंग, अर्थ फंड और अहंकार में लिप्त होने का आरोप उन पर नहीं लगाया जा सकता.. कैडर बेस पार्टी भाजपा को कोरोना काल मे वर्चुअल कॉन्फ्रेंस के मोर्चे पर संगठन की नई दिशा उनके कार्यकाल में ही संभव हुआ..
पार्टी संगठन जब कुशाभाऊ ठाकरे शताब्दी समारोह मना रहा.. तब संगठन शिल्पी की जिस लाइन को कभी ठाकरे ,खंडेलवाल और नई पीढ़ी में नरेंद्र तोमर ने आगे बढ़ाया उसमें भविष्य की भाजपा में एक नया नाम सुहास भगत का भी जोड़कर ही देखा जाएगा.. संघ की इस लाइन पर आगे बढ़ने के बाद सामने आई नई व्यवस्था नए प्रयोग नई जमावट की परीक्षा मिशन 2023 के परिणामों के साथ की जाएगी.. सिर्फ बदलती भाजपा नहीं बल्कि नई चुनौतियों और अस्तित्व में आ रही नई व्यवस्था की मजबूत कड़ी साबित हुए सुहास भगत को पूर्व संगठन मंत्रियों की तरह शायद राजनीति रास नहीं आ रही थी.. चर्चा इस बात की भी खूब है कि संघ वापसी का उन्होंने न सिर्फ मानस बना लिया था..
बल्कि शीर्ष नेतृत्व से अपनी अपेक्षा भी बहुत पहले व्यक्त कर दी थी.. इसके कारण भी कई हो सकते हैं.. डेढ़ दशक से सरकार में रहते पूर्व संगठन मंत्रियों की तुलना में भगत ने एक नई पहचान बना कर ऐसी छाप छोड़ी कि भविष्य में भाजपा की सियासत से दूर उन्हें नई पारी खेलने का मौका नए सिरे से मिल सकता है.. बौद्धिक प्रमुख से फिलहाल इसकी नई पारी की शुरुआत हो चुकी और कार्यक्षेत्र में भी बढ़ोतरी की गई.. क्षेत्र स्तर पर बौद्धिक प्रमुख की भूमिका निभाने जा रहे है..2018 में भजपा जब जरूरी बहुमत नहीं जुटा पाई और सरकार सिंधिया फैक्टर से सामने आई
..सरकार चलाने और स्थिर बनाए रखने के लिए जरूरी समन्वय की सियासत को उन्होंने एक दिशा जरूर दी.. राकेश सिंह से निकलकर विष्णु दत्त के पास पहुंचे संगठन में मंडल पुनर्गठन से लेकर जिले और प्रदेश में बीजेपी के नए चेहरे स्थापित करने की कवायद सुहास भगत के संगठन महामंत्री रहते ही संभव हुई.. जिसकी परिणति विष्णु दत्त शर्मा जैसे युवा ऊर्जावान चेहरे को स्थापित कर पूरा किया गया.. विद्यार्थी परिषद के प्रचारक से निकले विष्णु दत्त ने प्रांत प्रचारक से संगठन महामंत्री बने सुहास भगत के साथ कदमताल किया.. सुहास- विष्णु का शिवराज के साथ त्रिकोण कारगर साबित हुआ
… वह बात और है कि तीनों को अपनी सोच और प्राथमिकताओं में बदलाव लाना पड़ा जिस के खट्टे मीठे अनुभव सभी के पास है.. संगठन के कायाकल्प से जुड़े मोर्चा और जिले से जुड़े कई ऐसे फैसले गिनाए जा सकते.. जिसमें संगठन महामंत्री ने प्रदेश अध्यक्ष को फ्री हैंड दिया.. संगठन महामंत्री की भूमिका में मुख्यमंत्री शिवराज के साथ अपवाद छोड़ दे तो अंडरस्टैंडिंग कुछ उतार-चढ़ाव के बाद मजबूत होती गई.. सुहास भगत संगठन महामंत्री की भूमिका में फैसलों पर अपनी राय और स्पष्ट मशवरा देने में यकीन रखते थे.. लेकिन जिद कहें या अड़ियल रवैया उन्होंने कभी अख्तियार नहीं किया.. सरल सहज व्यक्तित्व और सुहास की समन्वयवादी सियासत ने मिशन 2023 की नींव रख दी है.. यह भी सच है 23 से पहले यह तिकड़ी टूट गई है.. इस तिकड़ी को बड़ी राहत 28 उपचुनाव से ज्यादा जब दमोह हार गई तब 4 चुनाव के परिणामों ने दी थी… भाजपा के त्रिदेव को बड़ी ताकत ही नहीं राहत भी मिली थी
. जिसे जीत के लिए जरूरी बदलाव की पटकथा से जोड़कर देखा जा रहा है.. संगठन की चाबी भले ही संगठन महामंत्री के तौर पर सुहास के पास रही लेकिन उनके ऊपर वरिष्ठ तो नीचे सहयोगी और कनिष्ठ की लंबी फौज खड़ी हो चुकी है..फोरम भाजपा का हो या फिर संघ का अपनी बात को उन्होंने पुरजोर तरीके से सामने रखा..2016 में जिन परिस्थितियों में संगठन में उन्होंने कमान संगठन महामंत्री की संभाली उस वक्त लगातार चुनाव जीत सरकार में लौटने के बाद भी करीब 13 साल की सरकार रहते संगठन पर सत्ता के सामने नतमस्तक होने का आरोप लगाया जाता था..
करीब 6 साल के कार्यकाल में भाजपा के उतार-चढ़ाव को सुहास भगत ने बहुत करीब से देखा.. तत्कालीन संगठन महामंत्री अरविंद मेनन के उत्तराधिकारी के तौर पर सुहास भगत ने यदि मुख्यमंत्री रहते शिवराज के साथ काम किया.. तो 15 महीने में विपक्ष की भूमिका निभाने भाजपा के बनते बिगड़ते समीकरण के भी वह साक्षी बने.. प्रदेश अध्यक्ष नंदकुमार सिंह चौहान से लेकर राकेश सिंह और विष्णु दत्त शर्मा तीनों के दौर में सुहास डटे रहे .. सरकार और शिवराज को मजबूत करने के लिए नंदू भैया का समर्पण ..तो राकेश सिंह की बढ़ती महत्वाकांक्षाओं के साथ चर्चा में सामने आई टकराहट ही नहीं पार्टी और अपने भविष्य की बिसात को लेकर चिंतित विष्णु दत्त सभी के साथ सुहास भगत उस लाइन को आगे बढ़ाते गए… जिसकी अपेक्षा पर्दे के पीछे संघ उनसे रखता था..
सुहास भगत के सामने चुनाव से हटकर एक बड़ी चुनौती यदि संगठन को एक नई पहचान देने की थी.. तो सिंधिया फैक्टर यानि नए सिरे से पार्टी नेताओं में समन्वय बना सरकार को स्थिर और मजबूत तो संगठन में बदलाव के साथ बूथ मैनेजमेंट को परिणाम मूलक साबित करना भी था.. बूथ विस्तारक योजना को अंजाम तक पहुंचाने के बावजूद नई चुनौती समर्पण अभियान का बड़ा लक्ष्य पूरा करने से पहले सुहास उस जिम्मेदारी से मुक्त हो गए.. जिसके सामने अब चुनौती मिशन 2023 और 2024 का चुनाव होगा..
संगठन मंत्रियों की व्यवस्था खत्म उनके कार्यकाल में हुई और संघ के राष्ट्रीय नेतृत्व की मंशा को उन्होंने पूरा भी कराया.. संगठन मंत्रियों की सत्ता में एडजस्टमेंट बिना उनकी रूचि के संभव ही नहीं था.. जिसके लिए पार्टी में आलोचना करने वाले खूब हैं…सरकार की धमक के बावजूद पार्टी अध्यक्ष विष्णु दत्त शर्मा को कम समय में नई पहचान स्थापित करने में सुहास भगत ने अपना किरदार ईमानदारी से निभाया.. सह संगठन महामंत्री हितानंद को भी आगे बढ़ाया.. असम से लेकर पंजाब के चुनाव को भी उन्होंने नजदीक से देखा.. नरेंद्र सिंह तोमर के उत्तराधिकारी के तौर पर प्रदेश अध्यक्ष नंदू भैया की टीम में जरूरी बदलाव हो या फिर आगे चलकर राकेश सिंह के पदाधिकारियों का विकल्प भी उनके संगठन महामंत्री रहते सामने आया.. सिंहस्थ के दौरान जब अरविंद मेनन की विदाई के चर्चे थे.. तब सुहास भगत की एंट्री हुई थी.. 2018 में अमित शाह के राष्ट्रीय अध्यक्ष रहते पार्टी हाईकमान ने जब मानस बदलकर शिवराज के नेतृत्व में चुनाव में जाने के लिए जरूरी सारे फैसले छोड़ दिए थे..
तब सुहास भगत के पास अनुभव की कमी थी लेकिन उन्होंने न सिर्फ पार्टी पर अपनी पकड़ मजबूत की बल्कि संगठन को भी मंत्री विधायकों के कब्जे से बाहर निकाला..2003 में भाजपा की सरकार बनाने के लिए बदलाव के साथ तत्कालीन संगठन महामंत्री कृष्ण मुरारी मोघे की जगह कप्तान सिंह सोलंकी उसके बाद माखन सिंह ,अरविंद मेनन, भगवतशरण माथुर ,अनिल दवे जैसे कई प्रचारकों को भाजपा में संघ द्वारा भेजा गया.. इनमें से अधिकांश प्रचारको को राजनीति खूब रास आई.. कप्तान सिंह राज्यसभा सांसद से लेकर राज्यपाल बने, कृष्ण मुरारी मोघे लोकसभा तो अनिल दवे राज्यसभा जो केंद्र में मोदी सरकार में मंत्री भी बने ..अनिल दवे उससे पहले तत्कालीन मुख्यमंत्री उमा भारती के सलाहकार भी बने.. सह संगठन मंत्री से संगठन महामंत्री की कमान संभालने वाले अरविंद मेनन जो इन दिनों भाजपा के राष्ट्रीय मंत्री की भूमिका निभा रहे पहले संगठन महामंत्री फिर प्रचारक बने.. इन सभी का प्रचारक का दर्जा खत्म कर दिया गया..
माखन सिंह स्वर्गीय भगवतशरण माथुर के साथ सुहास भगत उन भाग्यशाली में शामिल जिससे संघ ने पल्ला नहीं झाड़ा .. माखन सिंह और भगवतशरण ग्रुप भाजपा ने राष्ट्रीय स्तर पर मोर्चा प्रकोष्ठ की जिम्मेदारी सौंपी.. या यूं कहें भाजपा में उनके रहमों करम पर छोड़ दिया गया.. माखन सिंह का रास्ता राष्ट्रीय स्तर पर नहीं खुल सका तो मध्य प्रदेश सरकार द्वारा उन्हें लाल बत्ती से नवाजा गया.. राष्ट्रीय स्तर पर संगठन महामंत्री रहते रामलाल की तरह ही मध्य प्रदेश से संगठन महामंत्री सुहास भगत की संघ में वापसी हो चुकी है.. इससे पहले सह संगठन महामंत्री अतुल राय को भी भाजपा से मुक्त कर दिया गया था.. इन सभी की राजनीतिक मोर्चे पर जिनकी सफलता असफलता सहभागिता समन्वय की भूमिका पर सवाल खड़े किए जा सकते हैं
..लेकिन यदि संघ ने उनकी घर वापसी संघ वापसी सुनिश्चित कराई.. तो निश्चित तौर पर इसका मूल्यांकन किया गया होगा.. दूसरे संगठन मंत्रियों की तरह सुहास भगत के लिए चुनाव लड़ने और बैक डोर एंट्री के जरिए संसद में पहुंचने के दरवाजे फिलहाल जरूर बंद हो गए.. लेकिन जिस पृष्ठभूमि और उद्देश्य से संघ द्वारा वह भाजपा में भेजे गए थे ..उसकी मुख्यधारा में वापसी को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता.. तात्कालिक तौर पर इसमें नाकामियां निकाली जा सकती.. लेकिन दूरगामी फैसले के संदेश को भी समझना होगा..
मध्य प्रदेश के कई प्रचारकों ने प्रदेश की सीमा से बाहर निकल राष्ट्रीय स्तर पर इससे पहले भी अलग अलग भूमिका निभाई है.. सुहास भगत के सहयोगी सह संगठन महामंत्री हितानंद को उनका सशक्त विकल्प माना जा रहा है.. जिनकी 1 साल पहले भाजपा में एंट्री हुई थी.. कई उपचुनाव और संगठन में फेरबदल के हितानंद भी साक्षी बन चुके है.. बदलती भाजपा को फिर सत्ता में लाने के दांव पेच सीखना अभी भी उनके लिए बाकी है .. जिम्मेदारी अघोषित तौर पर उन्हें जरूर संभाल ली फिर भी अंतिम फैसला अब नई व्यवस्था के लिए जरूरी निर्णय के साथ राष्ट्रीय संगठन महामंत्री बीएल संतोष को लेना है.. 2023 विधानसभा चुनाव को ध्यान में रखते हुए जमावट भाजपा के नेतृत्व को करना है.. जिसके लिए पार्टी हाईकमान की लिखित चिट्ठी का इंतजार करना होगा..
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