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pralay ka muhaana मानवः कहानियों का कैदी

मानव एक कहानी है। वह कहानियों में ही जीवन जीता है। फिलहाल पृथ्वी के कोई आठ अरब लोग 195 देशों, 18 मुख्य धर्मों और उनके 42 सौ संप्रदायों की कहानियों में जिंदगी जीते हुए हैं। कहानियों से जीवन, समाज, धर्म, राजनीति सब है। जीवन की निरंतरता कहानी की निरंतरता है।… कहानी का खत्म होना इसलिए नामुमकिन है क्योंकि रचना और रचनाकार दोनों का अस्तित्व एक-दूसरे से बंधा है। कहानी के बिना मनुष्य जिंदा नहीं रह सकता तो बिना कहानी के मनुष्य भी नहीं! मनुष्य कहानी में जीते हुए उसकी जैविक प्रक्रिया में लगातार वंशानुगत कहानियां गढ़ता जाता है।

प्रलय का मुहाना-7: एक कहानी! स्वंयस्फूर्त, आत्मरचित और अपने ही इकोसिस्टम में गूंजती और बढ़ती हुई। कहानी में सब है। मिथक, कल्पना, इलहाम, अनुभव, प्रज्ञा, तर्क, रहस्य-रोमांच, मस्ती, थ्रिलर और रूदालियों से भरा-पूरा कथानक। कहानी न थकती है और न रूकती है और न ही उपसंहार है। उसका खत्म होना इसलिए नामुमकिन है क्योंकि रचना और रचनाकार दोनों का अस्तित्व एक-दूसरे से बंधा है। कहानी के बिना मनुष्य जिंदा नहीं रह सकता तो बिना कहानी के मनुष्य भी नहीं! मनुष्य कहानी है। उसी में जीते हुए उसकी जैविक प्रक्रिया में वह वंशानुगत कहानियां गढ़ता जाता है। कुनबा बनाता है। जीवन पद्धति बनाता है। धर्म बनाता है। परिवार, जात, समाज, कौम, नस्ल, सभ्यता और देश बनाता है।

फिलहाल पृथ्वी के कोई आठ अरब लोग 195 देशों, 18 मुख्य धर्मों और उनके 42 सौ संप्रदायों की कहानियों में जीते हुए हैं। कहानियों से जीवन, समाज, धर्म, राजनीति सब है। जीवन की निरंतरता कहानी की निरंतरता है। जीवन का वर्तमान झूला याकि कर्म, कविता, उत्सव, रंग सब अतीत की कहानियों का ही एक अनुभव। इसी से भविष्य का सपना है। अगला अध्याय है!

अबूझ पहेली है कि मनुष्य चेतना में कहानी का इलहाम कब हुआ? वक्त ने कब जमीन पर कहानी को उतारा? कहानी निरंतर-चिरंतन है। वह हर युग की भाषा में लिखी जाती है। होमो सेपियंस ने दो-ढाई लाख साल के अपने सफर, विकास को जिस भी रूप में लिखा उन सबके महाग्रंथों का वहीं निचोड़ है जो हिंदुओं के महाभारत का है। नायक, खलनायक, एक्स्ट्रा और उनके चरित्र से बार-बार लगातार यह विचार होता आया है कि क्या है सत्य? क्या है सृष्टि, प्रकृति और मनुष्य के रिश्तों का राज? जीवन का सत्व-तत्व? मनुष्य और उसकी कहानी का क्या है निचोड़?

मनुष्य चेतना और उसमें गुंथी गई कहानियों के लाखों साल! बावजूद इसके आज भी संभव नहीं मानव और उसकी रचना को परिभाषित कर सकना! मनुष्य जीव की चेतना और पुरुषार्थ का कमाल देखें जो वह अफ्रीकी गुफा के परिवेश से मुक्त हो उजियारे में जी रहा है। पिछले छह हजार वर्षों में विकास से ब्रह्माण्ड को भेदने की महाकथा लिखता हुआ है मगर खुद समझ नहीं पा रहा है कि वह देवकथा है या आसुरी? वह निर्माता है या विध्वंसक? वह झूठा है या सच्चा? वह इंसान है या पशु? कैसी त्रासद कहानी जो उसने विकास मंत्र धारे हुए है वहीं संहार की चाबी भी लिए हुए है! वह प्रेम लिए हुए है तो घृणा भी! वह सहज है तो अहंकारी भी! उसने अपने अहंकार में उस पृथ्वी का भी लिहाज नहीं किया, जिससे वह बना है! वह पशु समाज से उन्नत, स्वतंत्र हो कर बाहर निकला था लेकिन अपने ही हाथों अपनी ही कहानियों से मनुष्यों की अलग-अलग बाड़े बना बैठा। मानवों के एनिमल फार्म बना डाले।

परिभाषा बेमतलब

तभी बहुत उलझी हुई है मनुष्य और उसकी कहानी! इसलिए ‘मानव के होमो जींस के वंशानुगत नरवानरगण (प्राइमेटीज)’ की एक कृति होने की वैज्ञानिक परिभाषा बेमतलब है। वैसे कोई धर्मावलंबी यदि इस परिभाषा को नहीं माने और वह सब कुछ भगवानजी से हुआ माने तो यह उसका अधिकार है। दोनों ही परिभाषा मानव प्रकृति के यथार्थ से मेल नहीं खाती है। भला कैसे? आखिर मनुष्य जैसे भी जन्मा हो, जैसे भी जीता हुआ है लेकिन उसके अनुभव का निष्कर्ष तो एक सा! यदि वह ईश्वर की लीला है तब वह सृष्टि, पृथ्वी, मनुष्य अस्तित्व का भस्मासुर कैसे हो गया? यदि वह जैविक रचना से बुद्धि, प्रज्ञा, स्वतंत्रता, मानव स्वभाव, आचरण के क्रमिक विकास से होमो सेपियंस अस्तित्व का जागरूक प्राणी है तो पृथ्वी के आठ अरब मनुष्यों में बहुसंख्यक सोए हुए कुंभकरण कैसे हैं? वे अंधकार, अंधविश्वास, भय, शोषण, गुलामी और नियंत्रित जीवन के पालतू जीव कैसे हैं?

मानव मूल स्वतंत्र वृत्ति-प्रवृत्ति

मानव की इस व्याख्या को गांठ बांधना चाहिए कि वह मष्तिष्क चेतना में स्वतंत्रचेता वृत्ति-प्रवृत्ति लिए हुए है। बुद्धि-समझदारी बाद की बात है, प्राथमिक तत्व जैव विवर्तन से स्वतंत्रचेता अस्तित्व में जीने के भंवर है। इसके इन-बिल्ट संस्कार की जैविक रचना हैं। मनुष्य मतलब जीव-जंतुओं के एनिमल फार्म से मुक्त, पृथक शरीर रचना प्राप्त चेतनता से अपनी स्वतंत्र जिंदगी जीता हुआ! जीव जगत का समझदार और ज्ञानी प्राणी होने की पहचान बाद की बात है। इसमें यह एक लोचा है कि मनुष्य जब पृथ्वी और अपने दोनों के विध्वंस-संहार का भस्मासुर है तो कैसे प्रामाणिक तौर पर माना जाए कि वह समझदार और ज्ञानी प्राणी है!

बहरहाल, अपनी राय में मानव वह जो स्वतंत्र चित्त की सार्वभौमता में जीता है। मनुष्य वहीं जो स्वतंत्रता की चाह में, स्वतंत्रता द्वारा बना और स्वतंत्र अस्तित्व के परिवेश में जीने की चाह लिए हुए है।

सवाल है मानव की परिभाषा में स्वतंत्रचेता का क्यों ऐसा आग्रह और शर्त?

सोचें, जब आदि मानव ने अस्तित्व की सुध पाई तब उसके दिमाग में क्या फील रही होगी? क्या वह गुफा और जंगली परिवेश से बाहर निकलने का भभका लिए हुए नहीं था? वह तब बिना नियम, बंधन, रीति-नीति, देश, सरकार और व्यवस्था के था। वह जंगल, कंदराओं में जी रहा था। उसके पास कुछ नहीं था और कुछ नहीं होने के साथ अंधकार, भूख, भय और बाहर के खतरे थे। ऐसा जीवन जीते हुए आदि मानव ने न जाने कितने लाख साल गुजारे तभी एक दिन अचानक अनुभव ने उसकी चेतना के पट खोले। आदि मानव में साहस हुआ। गुफा जीवन से बाहर उजियारे में निकल कर देखने,  बाकी जानवरों से आंख मिला हौसले से जानने, खोजने की कुलबुलाहट उसके दिमाग में बनी। नतीजतन शुरू होमो सेपियंस का सफर।

उस युग में अंधकार के अभ्यस्त मष्तिष्क में कौतुक की किरण से पर्दा उठा। उसका जब उजियारे से साक्षात्कार हुआ तब वह समय, वह दिन, वह काल आदि मानव की पशुजगत से पृथक होने, स्वतंत्र बनने की आशीर्वाद घड़ी थी। मनुष्य का तब खतरों, भय, भूख, व अंधकार के परिवेश से मुक्ति के लिए पहला कदम उठा था। भय पर जीत का पहला दिन। साहस-पुरुषार्थ का पहला कदम। उजियारे की पहली किरण और स्वतंत्रता का पहला झोंका। मनुष्य निर्माण के बीज का पहला रोपण। आदि मानवों के जिन मष्तिष्कों में बत्ती जली और जिनमें नहीं जली वह दिन जीव जगत को दो हिस्सों में बांटने का दिन था। वानर-चिम्पांजियों की एक शाखा और नववानरगणों उर्फ प्राइमेटीज की दूसरी होमो सेपियन शाखा।

वह पहला बीज! भूख, कौतुक, इच्छा, फिर आकांक्षा और मनमौजी निरूद्देश्यता में जिधर अवसर उधर की ओर कूच की उत्प्रेरणा में उठते कदम! दिमाग में आदि मानव पूर्वजों की ये सूचनाएं बिल्‍ट-इन थी कि शरीर रचना कैसी? जन्म कैसे, मृत्यु कब। मतलब जैसे बीज से नई पौध अंकुरित हुई तो वृक्ष कैसा क्या होगा? कितना चौड़ा, कैसे पत्ते, कैसी शाखाएं, क्या उम्र और क्या लंबाई लिए हुए। फूल खिलेंगे या फल या कांटे? वैसे ही आदि मानव चिम्पांजी के डीएनए का बिल्‍ट-इन होमो सेपियन बीज बेसिक समझ लिए हुए था।

अंकुरित बीज धीरे-धीरे उजियारे की ऊर्जाओं से शक्ल पाने लगे। वह खड़ा हुआ। दो पांवों पर चलने लगा। मष्तिष्क और खुला। स्मृति खुली। लोग पृथ्वी पर फैलने लगे। अनुभव बना और होमो सेपियंस फैलते-फैलते महाद्वीपों में पसर गए। चलते, दौड़ते व अनुभवों की स्मृतियों के साथ वे फिर इलहाम, सपनों और कौतुकता में जीने लगे। मेहनती बने। एक कौतुक कई कौतुकों में परिवर्तित। वह जहां गया वहां के प्राकृतिक परिवेश में पका, खिला और बना। स्थान, समय, प्राकृतिक परिवेश ने मनुष्य को अपने रंग-रूप में ढाला। ऐसा होना मूल बीज की वैसी ही परिवर्तित बाहरी बातें हैं, जैसे ब्राजील के आम और भारत के आम का फर्क होता है। जैसे चीन और भारत की लीची का फर्क है। रंग अलग। आकार अलग। चीज एक पर वेरायटी कई लेकिन प्रकृति एक। वहीं जो मूल बीज से वंशानुगत, बिल्ट इन है। आखिर यह तो संभव नहीं कि बीज वटवृक्ष का रोपें और मिट्टी-हवा-पानी उसे आम का पेड़ बना दे।

तब समाज नहीं था। निपट अकेले आदमी का अकेला जीवन अस्तित्व। फिर उसका परिवार, कुनबा बना, जिसका वह मुखिया। इस सत्य के बहुत मायने हैं। नोट करने वाली बात है कि धुनी आदि मानव की चेतना का विकास व्यक्तिवादी, व्यक्तिगत उद्यम, पुरुषार्थ, साहस और दुस्साहस के मूल संस्कार से है। मानव शास्त्र और डार्विन का विकासवाद भी बताता है कि व्यक्ति विशेष की खोज, निज ऊर्जा, उत्प्रेरणा से थी। पृथ्वी पर न भगवानजी से असंख्य अंडे बरसे और न उनसे मनुष्य निकलना आऑटोमेटिक था। व्यक्ति स्वंतत्रता, एकला चलो में आदि मानव ने ‘सर्ववाइवल ऑफ द फिटेस्ट’, सर्वश्रेष्ठ की उत्तरजीविता याकि ‘दैवो दुर्बलघातकः’ के मौको में निज साहस, किलिंग इंस्टिक्ट से अपने को बचाया, बढ़ाया और बनाया।

स्वतंत्र, मनमौजी आदि मानवों ने पृथ्वी के कोने छानते हुए झोपड़ियां बनाई। पत्थर के औजार बनाए। उनका उपयोग सीखा। शिकार, खेती और पशुपालन किया। होमो सेपियंस कोई एक लाख नब्बे हजार साल निपट व्यक्तिवादी स्वतंत्र जीवन जीते हुए थे। इन एक लाख नब्बे हजार सालों में इंसान ने पुराप्रस्तर काल, नवप्रस्तर काल की अवस्थाओं में औजार, शब्द, बोली (कम्युनिकेशन), पत्थर-लोहे के हथियार, आग, पहिये, बरतन, पशुपालन, झूम खेती जैसे बुनियादी विकास किए। सभी मनुष्य की स्वतंत्रचेता उद्यमशीलता से। ऐसे ही प्रकृति की शक्तियों को चिन्हित करने, उन्हें देवता समझने, उनको नाम और मंत्र से आह्वान करने, जन्म से मृत्यु तक के कच्चे-पक्के कबीलाई संस्कार बनाने के तब काम हुए थे। तभी कहानियों के बनने और बनाने, सुनने-सुनाने की वह बुनियाद शुरू हुई, जिससे मनुष्य का वंशानुगत कहानियों में जीना शुरू हुआ!

सिर्फ छह हजार

आप जानना चाहेंगे कि वह वक्त कब आया जब मनुष्य ने अपने निज पुरुषार्थ की जगह नया ख्याल बनाया? उसे साझा व्यवस्था की जरूरत लगी? अपने को सामाजिक प्राणी बनाया? जीवन को चलवाने के लिए धर्म, राजनीति बनाना शुरू किया? अपने को इतिहास, मानविकी- ह्यूमनिटी में कन्वर्ट करने लगा?

मुश्किल से छह-आठ-दस हजार साल पहले! मनुष्य का ईसा पूर्व सन् सात-आठ हजार के आसपास खेती करने का सिलसिला शुरू हुआ था। इसके अनुभव में ऊपजाऊ जमीन, पानी, चरागाह को ले कर घूमंतू-मनमौजी लोगों के दिमाग में पूर्वज चिम्पांजी से आए बिल्ट-इन जीन के स्वामित्व कीड़े ने जोर मारा। तब के पुरातत्व प्रमाणों में पशुओं, फसलों, औरतों की चोरी व अपहरण से संसाधनों पर कब्जे व कंपीटिशन की प्रवृत्ति का तथ्य जाहिर है। मतलब इंसान के कबिलाई झगड़े याकि झगड़े और सुलह के सिलसिले के अनुभव शुरू हुए। (चिम्पांजी के मौजूदा व्यवहार में ऐसी प्रवृत्ति होने के वैज्ञानिक प्रमाण हैं। चिम्पांजी व आधुनिक मानव के डीएनए में 99 प्रतिशत साम्यता का भी सत्य है। इसकी आगे विस्तार से विवेचना करूंगा)। जो हो मुश्किल से पांच से दस हजार साल पूर्व होमो सेपियंस में सोशल और राजनीतिक खुराफात के बीज अंकुरित हुए थे।

ईसा पूर्व सन् 3800 से…

ईसा पूर्व सन् 3800 में खेती बढ़ी तो मनुष्य को पानी, उपजाऊ जमीन, चरागाह की जरूरत और महसूस हुई। इन चीजों का महत्व समझ आया। तब लोगों में कंपीटिशन बना और दिमाग में संसाधन व हैसियत का इलहाम बनने लगा। ज्ञात इतिहास को मानें तो मेसोपोटामिया में ईसा पूर्व सन् 3800 में सूखा पड़ा। तब गांव में रह रहे लोगों में यह सामुदायिक समझ बनी कि यह तो ठीक नहीं इसलिए नदी-नहर के किनारे बसें। नदी-नहर किनारे की बसावट से बाद में पानी की देख-रेख के लिए खेतिहरों में सामुदायिकता का आइडिया बना। पानी के लिए पहला सामुदायिक मानव प्रबंधन मेसोपोटामिया में हुआ। कुछ सदी के बाद सिंधु नदी घाटी और चीन की पीली नदी घाटी में भी लोगों ने खेती के लिए ऐसी ही मिलजुल कर व्यवस्था बनाई।

गौर करें ईसा पूर्व के चार हजार साल और ईसा बाद के दो हजार साल बाद का मौजूदा सन् 2022 का वक्त, कुल मिलाकर तो मानव छह हजार वर्षों के ही कर्म की कहानियों का प्रारब्ध बनाए हुए है। उसी से धर्म, समाज, राजनीति, विकास, आधुनिकीकरण, भूमंडलीकरण की कहानियों के बाद अब विनाश का मुहाना!

छह हजार साल पहले मनुष्य बिना सरकार, व्यवस्था, राजनीति, नेता, धर्म-समाज रचना के था। मनुष्य एक-दूसरे से हजारों मील दूर होते हुए भी पानी और ऊपजाऊ जमीन का अर्थ जान लेता था। होमो सेपियंस घूमते हुए थे। जाहिर है बुद्धि के खुलने, सत्य समझने और उससे आवश्यकता अनुसार आविष्कार, संसाधनों की समझ, सोचने-विचारने का होमो सेपियंस विकास व्यक्तियों की निज चेतना, कर्म, उद्यमशीलता, निडरता की स्वंयस्फूर्तता से था।

सोचें, दो लाख वर्षों में एक लाख 90 हजार वर्ष मनुष्य ने अपने से अपने को कैसे बनाया। बिना किसी व्यवस्था और चारदिवारी के अपने आप मानव सभ्यता पृथ्वी पर फैलती-बनती गई। धारणा है भूमंडलीकरण ताजा परिघटना है। लेकिन क्या ऐसा आदि मानव ने निबार्ध धुमक्कड़ी, अल्प चेतना और बिना संसाधनों के ही सहस्त्राबदियों पहले कर नहीं दिखाया था? मनुष्य चेतना पूरी पृथ्वी पर बेधड़क बुद्धि को फैलाते हुए थी! सोचें, क्या बिना सरकारों के मनुष्य ने एक लाख नब्बे हजार वर्षों में पृथ्वी के कोने-कोने में मानव उपस्थिति बना कर पृथ्वी को मानव लोक नहीं बनाया?

और उसके बाद? मानव ने निज अनुभव, अपनी कहानी को सामुदायिक, धार्मिक, राजनीतिक मायथोलॉजी का विस्तार दिया। मेसोपोटामिया में अंकुरित सामुदायिक आइडिया ने फिर सुमेर में कबीला प्रमुख, राजवंश और राज्य व सम्राट -साम्राज्य बनने का सिलसिला शुरू हुआ। धीरे-धीरे उसी से अब विकास और विध्वंस की समानांतर धारा के सत्य में यक्ष प्रश्न है कि मानव कहानी का ओर-छोर क्या? तीन हजार सालों से लड़ाई-झगड़ों का अबाध सिलसिला और मनुष्य प्रकृति की लगातार पुनरावृत्त होती कहानियों का अंत क्या?…इसे बूझने के लिए मनुष्य प्रकृति की कहानी जानना भी जरूरी है। (जारी)

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Written by rannlabadmin

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