लोग क्या जलवायु परिवर्तन, पृथ्वी की चिंता कर सकते हैं? अपना व्यवहार बदलेंगे? असंभव है। … मनुष्य स्वकेंद्रित स्वार्थी है न कि रेशनल। विज्ञान के नए शोध अनुसार मनुष्य दिमाग की 99 प्रतिशत प्रोसेसिंग अवचेतन में स्वचालित है। भ्रम है कि मनुष्य, चेतन प्रकृति का जीव है। असलियत में उसकी चेतना अतीत और भविष्य के सबक व समझ के बिना होती है।…जो प्रजाति, जितनी अधिक कहानियौं में जीती है, वह उतनी ही जड़ स्वभाव में कष्टदायी, द्वेषपूर्ण, वेदनापूर्ण, आत्महंता जिंदगी जीती है। ऐसे लोगों में मौलिक बुद्धि का खिलना संभव नहीं है।
प्रलय का मुहाना-18: आठ अरब लोग क्या जलवायु परिवर्तन, पृथ्वी की चिंता कर सकते हैं? क्या अपना व्यवहार बदलेंगे? असंभव है। कई वजह है। जैसे, व्यक्ति का दिल-दिमाग स्वभाव और व्यवहार के मामले में डीएनए से हार्डवायर्ड है। चिम्पांजी के गुणसूत्रों में उसका आचरण है। पशु एनिमेलिया के पशुओं जैसी बेसुधी में इंसान जीता है। व्यवहार ढर्रे और यथास्थिति का है। मनुष्य स्वकेंद्रित स्वार्थी है न कि रेशनल। विज्ञान के नए शोध अनुसार मनुष्य दिमाग की 99 प्रतिशत प्रोसेसिंग अवचेतन में स्वचालित है। भ्रम है कि मनुष्य, चेतन प्रकृति का जीव है। असलियत में उसकी चेतना अतीत और भविष्य के सबक व समझ के बिना होती है। तभी आश्चर्य नहीं जो मनुष्य प्रजातियां लड़ते-लड़ते बरबाद होती हैं लेकिन फिर भी निरंतर नए-नए संहारक हथियारों को बनाती है। मनुष्य को झूठ, धोखे, चोरी, लालच, तनाव, आत्महत्या, दूसरों की हत्या, अत्याचार, नरसंहार सभी के पाप का बोध है लेकिन फिर भी इन पापों का आचरण है! ऐसे भी धर्मावलंबी हैं, जो पृथ्वी को मृत्युलोक मानते हैं। स्वर्ग की हूरों के ख्याल में जनसंहार करते हैं। ऐसी जमातों के लोग तब यह भी सोच सकते हैं कि पृथ्वी खत्म हो तो जन्म-जन्मांतर के कष्टों से मुक्ति मिले। पृथ्वी के प्राण पखेरू, उसकी हवा-पानी को यमराज हर ले तो मृत्युलोक खत्म हो और वे स्वर्ग जाएं।
जाहिर है मनुष्य की कहानियां ऐसी हैं, जिनसे लड़ना, मरना, जिहाद करना, पर्यावरण के प्रति बेपरवाही सब स्वभावगत है। इसलिए पृथ्वी परमाणु विस्फोटों, आग-गर्मी, गैसों से सूखती, बरबाद, बंजर कल होती हो तो आज हो।
ऐसे कितने प्रतिशत लोग होंगे? बहुसंख्यक! जितना अनुमान लगाएंगे उतना लगेगा कि कौन नहीं है, जो पृथ्वी की बजाय कल्पनाओं का स्वर्ग नहीं चाहता!
जड़ स्वभाव
मनुष्य के ख्यालों-स्वभावों को विज्ञान ने बहुत भेदा है। दिल-दिमाग की गहरी प्रोसेसिंग के साथ मनुष्य को सत्य समझाने की कोशिशें भी हैं। लेकिन मनुष्य दिमाग ऑटोमेटिक पशुगत यांत्रिकता में गुंथा है। वह निज स्वार्थों, जात-खाप-समाज की खोल में बंद है। इन्हीं के दिमागी मॉड़ल हैं। जो प्रजाति जितनी अधिक कहानियों में जीती है, वह उतनी ही जड़ स्वभाव में कष्टदायी, द्वेषपूर्ण, वेदनापूर्ण, आत्महंता जिंदगी जीती है। ऐसे लोगों में मौलिक बुद्धि का खिलना संभव नहीं है।
तब कैसे मुमकिन है मानव में पृथ्वी की चिंता बनना? इसलिए तय मानें कि पृथ्वी जलती जाएगी। कार्बन उत्सर्जन कम नहीं होगा। पशु हत्या खत्म नहीं होगी। आठ अरब लोगों की भीड़ में से एक-दो प्रतिशत लोगों के दिमाग भी वैश्विक चेतना और चिंता में खदबदाते हुए नहीं होंगे।
हम इक्कीसवीं सदी में हैं। विज्ञान के देवर्षियों के कारण दुनिया अब भूमंडलीकृत गांव है। फिलहाल हर मनुष्य महामारी और जलवायु परिवर्तन के कष्ट भोगता हुआ है। बावजूद इसके पृथ्वी की आबादी में अधिकतम लोग क्या वैसा ही व्यवहार लिए हुए नहीं हैं, जैसे दो सौ साल पहले था? पांच सौ या हजार साल पहले था? जैसे-
- निज स्वार्थ का व्यवहार। परिवार, खाप, जात, कबीले, भाषा-वर्ण-वर्ग-रंग, कर्म, समाज, धर्म, प्रदेश, देश, की पहचान, आइडेंटिटी में व्यवहार। मनुष्य, मनुष्य में फर्क और झगड़े बनवाने वाला आचरण। दरअसल मनुष्य का दिमागी सर्किट तेरे-मेरे के भेद में स्वभावगत यांत्रिक व्यवहार बनाता है। उसका सामाजिक व्यवहार अतीत की मान्यताओं में गुंथा होता है। इसलिए महामारी दौरान भी नस्ल, धर्म, देश की कहानियों में व्यक्तियों के निज व कबीलाई व्यवहार दिखलाई दिए। कबीलाई मान्यताओं और अंधविश्वास अनुसार व्यवहार था और है।
व्यक्ति सर्वत्र जात से साझा विकास मानता है। उसके दिमाग में साझा सरोकार, विषय, दुविधाओं, प्रतिस्पर्धाओं और झगड़ों के सामाजिक बाड़े हैं। इसी से फिर नेतागिरी, पदानुक्रम, व व्यवस्था-संगठनात्मक डिजाइन, खांचे और बाड़े रचते-बनते हैं। दिमाग इनसे बाहर निकल कर नहीं सोचेगा। महामारी की वैश्विकता, वैज्ञानिक जानकारी के बावजूद मनुष्य कबीलाई सोच में अलग-अलग व्यवहार बनाए हुए था। किसी ने गोबर के लेप से इलाज किया। किसी ने ताली-थाली तो किसी ने जादू-टोनों के वंशानुगत डीएनए से आपदा का सामना किया। कबीलों ने महामारी और विज्ञान को संदेह से देखा। मगर हां, जब निज जीवन की सांसे उखड़ने लगीं तब व्यक्ति विज्ञान-वैक्सीन को मानता-अपनाता हुआ था।
दिमाग की सीमा
- भेड़ें जैसे भेड़ों के बीच रहती हैं वैसे वनमानुष, प्राइमेट्स की विरासत का व्यक्ति अपने लोगों, परिवार, समाज में सुकून पाता है। पहले मैं, फिर परिवार, फिर जात, फिर धर्म, चारदिवारी, भाषा, रंग आदि के घेरों के अनुसार मनुष्य का व्यवहार होता है। इसलिए व्यक्ति और समाजों के लिए वैश्विक सरोकार याकि जलवायु परिवर्तन, मानवता और पृथ्वी पर सोचना संभव नहीं है। एक शोध अनुसार व्यक्ति का दिमाग अधिक से अधिक 150 लोगों के चेहरे, उनसे नाता-रिश्ता, उनके काम करने-कराने की निज दिमागी क्षमता लिए होता है। शायद तभी बड़ी आबादियों के नेता भी चंद लोगों से घिर कर काम करते और कराते हैं। वे भी तात्कालिकता, अपने लोगों, अपनी सत्ता और अपने कार्यकाल की चिंता से बिना भविष्य दृष्टि के होते हैं।
- तभी व्यक्ति के व्यवहार का पहला सत्य जात-खाप-समाज का छाता है। ऐसा होना भी स्वकेंद्रित, व्यक्तिवादी स्वभाव में। समाज में व्यक्ति निज स्वार्थ, अहम, मान-सम्मान, दबदबे, पद, पैसे, भोग की इच्छा के बेसिक इंस्टिंक्ट में फैसले करता है। उसका कबीले, शिकारी टोली, जात, समाज से सरोकार होता है वहीं उसका कंपीटिशन का बाड़ा भी होता है। इसमें व्यक्ति ताकत-रूतबे के प्रदर्शन और नेतागिरी के मौके बनाता है। नेता वह बनता है, जिसकी व्यक्तिवादी भूख जन्मजात मदारी स्वभाव लिए हुए हो। जिसकी जैविक रचना में आकर्षण, गड़ेरिए के वंशानुगत स्वभाव के डीएनए हों।
- जैसा व्यक्ति का दिमाग है वैसा व्यवहार। तो दिमाग की लकीर का वह फकीर है। यदि दुष्ट-नीच व्यवहार के डीएनए हैं तो वह हमेशा दुष्टता दिखाएगा। जैसी प्रकृति वैसी प्रवृत्ति में व्यवहार। हितोपदेश में उदाहरण हैं कि यदि कुत्ते को राजा बना दें तो वह क्या जूता नहीं चबाएगा? व्यक्ति जिंदगी को एक्सट्रपोलेटिंग मशीन की यांत्रिकता में जीता है। जिंदगी मानो कैलकुलेटर। क्षणिक और तात्कालिकता में हिसाब-किताब। वह दूरदर्शी, विजनरी नहीं होता है। संकट है तो हाथ-पांव मारेगा। ज्योंहि सब सामान्य हुआ तो लकीर में फिर व्यवहार। देशकाल में ट्रेंड बनते-बिगड़ते हैं, घटनाएं होती हैं। इन सबमें व्यक्तियों की दिलचस्पी, दिवानगी ट्विटर के ट्विट जैसे छोटी-क्षणिक असर की होती है।
इलहामी और गपोड़ी
- व्यक्ति का व्यवहार इलहाम में भी होता है। दिमाग में जिज्ञासा होती है लेकिन उथली हुई। सत्य खोजने-जानने-समझने के बजाय मनुष्य दिल-दिमाग के ख्याल से फैसले करता है। वह भावना में जीता है न कि तार्किकता से। दिल-दिमाग की भावनाओं, भय, आंशकाओं में उसका आचरण होता है। यही कारण है कि आमतौर पर मनुष्य जोखिम नहीं उठाता है। पराश्रित रहता है। नियतिवादी होता है। मनोवैज्ञानिकों के अनुसार यह स्वभाव वनमानुषों के शिकार जीवन का स्वभाव है। शिकारी अवस्था में शिकार से खाने का जब बंदोबस्त हो जाता था तो वह गुफा में, कबीले से बाहर तब तक नहीं निकलता था जब तक खाना खत्म होता हुआ न हो। तभी वह जंगल में जाने, शिकार की जोखिम लेता था।
- मनुष्य की मेमोरी में एक लाख नब्बे हजार साल के जंगली-शिकारी जीवन के अनुभव है। तब लोग और कबीले सुरक्षित ठिकाने व भूख-भय-चिंता में भटकते थे। तभी दिल की बात याकि इंस्टिंक्ट में व्यवहार होता था। तब कबीलों में आपसी खबर (जैसे चिम्पांजी एक-दूसरे के टोलों, बाड़ों पर नजर रखते हैं) लेने-देने, शिकार-जंगल की जानकारी, किस्से-कहानी सुनने-सुनाने की वनमानुषों में प्रवृति बनी। दिमाग में गपोड़ी स्वभाव बना। कबीलों में एक-दूसरे की खबर, अनुमान, आंशकाओं, आपदाओं और नए-नए ठिकानों की आवाजाही से लोगों में गपशप की प्रवृत्ति बनी। इसी की प्राइमरी मेमोरी के कारण आगे सभ्यताओं के निर्माण के बाद भी लोगों का किस्सेबाजी, कानाफूसी, गप्पबाजी, चुटकलेबाजी और ख्यालों में, परिचयात्मक जानकारी में जीने का स्वभाव विकसित हुआ। आश्चर्य नहीं जो इक्सीसवीं सदी में भी लोग सोशल मीडिया से गपशप और झूठी-सच्ची बातों की क्षणिकताओं, टाइमपास के कबीलाई वक्त, लंगूरी ट्रोल में मानव जीवन जीते हुए है। इसी से दिमाग ख्याल-इलहाम पाता है। उसका नेटवर्क, आइडेंटिटी और सोशल स्वभाव बनता है। यह सब कुछ आदिम कबीलाई-शिकारी अवस्था के वंशानुगत स्वभाव से है।
- मनुष्य का झूठ बनाना, झूठ फैलाना और अज्ञान में जीना भी वंशानुगत स्वभाव में है। व्यक्ति को पर निंदा में मजा आता है। दूसरे के दिमाग को पढ़ते हुए व्यक्ति कभी मजा लेने के लिए या एम्पैथी, सहानुभूति में गपशप करता है तो वह सूचना निकालने, राज जानने, अपना उल्लू साधने से नहीं चूकता है। नतीजतन ख्यालों, मुंगेरीलाल सपने, भय-खौफ की चिंताओं, आस्थाओं-विश्वास, स्वार्थ, झूठ, आग्रह-पूर्वाग्रह की गीगाबाइट्स विशालता में मेमोरी बनती है। झूठ और छद्म बनते जाते हैं। व्यक्ति अपनी असफलताओं, मूर्खताओं, निर्धनताओं का सत्य नहीं बोलता। उन पर कहानियां बनाकर दूसरों को बहलाता-बहकाता है। व्यक्ति हमेशा अपनी कमियां छुपाए रखेगा और सफलता को दंभ में गुरूता, विजेता के भाव में जाहिर करेगा। व्यक्ति, परिवार, कबीले, जात और देश सभी इसी स्वभाव में ढले होते हैं।
- व्यक्ति का व्यवहार तुक्के का होता है। सही-गलत, सत्य-झूठ की स्पष्टता के बजाय संभावना के ख्याल में फैसला करता है। देश और मनुष्य पर्यावरण, जलवायु, पृथ्वी के संकट में भी संभावना के ख्याल में लोग सोचते हुए रहेंगे।
मदारियों व मार्केटिंग से व्यवहार
- व्यक्ति की खोपड़ी में वहीं बात, वहीं चीज क्लिक होती है जिसकी कहानी, क्रेजी आइडिया, शौर्य गाथा, धर्म कथा मंत्र-मुग्ध करती है। जो उसके दिमाग के अनुकूल होती है। दिमाग सत्य, अनुभव से क्लिक नहीं होता है, बल्कि कहानी विशेष, उसे सुनाए जाने के तरीके, अंदाज से होता है। दिमाग में मदारी की वाह बनती है न कि खेल करने वालों की। एक लोकोक्ति है- किसी ने प्रभु यीशु को नहीं जाना होता यदि सेंट पॉल नहीं होते। सेंट पॉल ने उनकी कहानी व चमत्कारों को ऐसे सुनाया कि वे मनुष्यों के भगवान हुए। सोचें, यदि वाल्मिकी, वेदव्यास ने रामायण, महाभारत नहीं लिखे होते या तुलसीदासजी ने हनुमान चालीसा नहीं लिखा होता तो हिंदुओं की धर्म चेतना में क्या होता? व्यक्ति का स्वभाव और व्यवहार कहानियों का प्रभाव है। भले सामान खरीदना हो, आस्था का मामला हो, नेता चुनना हो या जीवन पद्धति रचनी हो सब के दिमागी फैसले-व्यवहार दरअसल मार्केटिंग का परिणाम है। व्यक्ति की किसी के प्रति दिवानगी, भक्ति, क्रेजीनेस, मंत्र-मुग्धता का राज खोपड़ी में वनमानुषों के वक्त पैठे जादू-टोने के डीएनए है। चमत्कार को नमस्कार और जो दिखता है सो बिकता है व मार्केटिंग के प्रभाव में व्यक्ति के फैसले का स्वभाव वंशानुगत है। वनमानुष काल से ही मनुष्य का दिमाग बेवकूफी, गंवारपने में हार्डवायर्ड हुआ चला आ रहा है।
रियलिटी से परे क्षणिक बुद्धि
- तभी बेवकूफियों, झूठी बातों, झूठे वर्गवाद, फालतू के कंपीटिशन से व्यक्ति का व्यवहार रियलिटी से परे होता है। वह वैश्विक सरोकारों और मानव समझदारियों से अलग जिंदगी जीता है। व्यक्ति सजग, संतुलित और समझदार नहीं है। उसे रियलिटी बोध नहीं होता है। यदि किसी शहरी से पूछें की तुम सांप से डरते हो तो वह तड़ाक कहेगा नहीं। लेकिन यदि उसके घर से सांप निकला तो हाथ-पांव फूले हुए होंगे। किसी अनुभव विशेष में और उससे अलग, दूर के जीवन का व्यवहार अंतर वह समस्या है, जिससे मानव दिमाग गंभीर वैश्विक संकटों की बिना सचेतना के है।
- व्यक्ति कितना ही पढ़ा-लिखा हो, पेशेवर हो उसका जानना परिचयात्मक होता है। कामकाज जानने-करने और घटनाओं, हेडलाइन से परिचय भर। यांत्रिक जीवन की जरूरत भर जितना। तब भला सत्य खोजने, अपने और परिवेश के अस्तित्वगत सरोकारों को जानने की ज्ञानी प्रवृत्ति का बनना कैसे संभव है? इसलिए जलवायु-पृथ्वी के संकट को भले सब जानते हुए हों। लेकिन इसकी गहराई का ज्ञान, व्यवहार बदलने, उपायों पर काम करने की चेतना आठ अरब लोगों की नहीं बन सकती।
तभी अहम यक्ष प्रश्न है कि मनु्ष्य हाल-फिलहाल जिस मानसिक अवस्था में है वह क्या प्रलय के मुहाने पर कुछ भी करने में समर्थ है? (जारी)
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