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parashuraamah yug parivartan परशुराम युग परिवर्तन के साक्षी, कारण व कारक!

परशुराम भारतीय इतिहास के पहले ऐसे विद्वान अर्थात ब्राह्मण पात्र हैं, जिन्होंने किसी राजा को दंड देने के लिए राजाओं को ही एक जुटकर उससे लोहा लिया था। इसके पूर्व पुरुरवा, वेन, नहुष, शशाद जैसे राजाओं की दुष्टताओं, लापरवाहियों को दंडित करने के लिए ऋषि या विद्वान अपने ही स्तर पर स्वयं आगे आए थे।… परशुराम वैदिक संस्कृति के पूर्णतः अवलंबनकर्त्ता थे और उनका उद्देश्य इस जीव सृष्टि को इसके प्राकृतिक सौंदर्य सहित जीवन्त बनाये रखना था।

3 मई- परशुराम जयंती

भारतीय पुरातन ग्रन्थों में अतिप्राचीन काल में हो चुके कुछ ऐसे महापुरुषों का वर्णन है, जिन्हें आज भी जीवित अर्थात अमर माना जाता है। ऐसे आठ प्रसिद्ध अमर महापुरुषों की गाथाएं भारतीय पौराणिक, लौकिक कथाओं, काव्यों व गीतों में यत्र, तत्र सर्वत्र उपलब्ध हैं। इन अमर महापुरुषों में अश्वत्थामा, राजा बलि, महर्षि वेदव्यास, हनुमान, विभीषण, कृपाचार्य, भगवान परशुराम तथा ऋषि मार्कण्डेय शामिल हैं, जिन्हें अमर होने के कारण अष्टचिरंजीवी भी कहा जाता है। अष्टचिरंजीवियों में शामिल भगवान विष्णु के आवेशावतार परशुराम कृतयुग अर्थात सतयुग, त्रेतायुग और फिर द्वापर में भी जीवित थे, उपस्थित थे, और ऐसी मान्यता है कि इस कलयुग में भी परशुराम जीवित हैं, वे अमर हैं, और वर्तमान समय में भी कहीं तपस्या में लीन हैं। विष्णु के दशावतारों में षष्ठम अवतार परशुराम के वर्तमान में भी जीवित होने की मान्यता के कारण ही उन्हें अष्ट चिरंजीवियों में शामिल किया गया है।

रामायण, महाभारत, भागवत पुराण और कल्कि पुराण आदि पौराणिक ग्रन्थों में परशुराम से सम्बन्धित अंकित आख्यानों के अनुसार इस पृथ्वी को इक्कीस बार क्षत्रियों से मुक्त कराने, सीता स्वयम्बर के पश्चात श्रीराम के अनुज लक्ष्मण से गर्मागर्म विवाद, महाभारत काल में काशीराज की पुत्रियों अम्बा, अम्बिका, अम्बालिका को भीष्म पितामह के द्वारा अपहरण कर लाने के बाद विचित्रवीर्य से विवाह करने से इंकार करने वाली अम्बा से भीष्म की विवाह कराने के लिए भीष्म से युद्ध करने के लिए उद्यत हो जाने वाले सभी भगवान परशुराम हैं। पौराणिक ग्रंथों के अध्ययन से ऐसा आभाष होता है कि परशुराम कई युगों तक विभिन्न युग परिवर्तनकारी घटनाओं के साक्षी व स्वयं कारण अथवा कारक बने। हैहयों से लड़ने वाले परशुराम सतयुग में हुए, जिन्होंने हैहयों को एक के बाद एक इक्कीस बार पराजित किया। कथा के अनुसार किसी बात पर रुष्ट अपने पिता जन्मदग्नि के आदेश का पालन करते हुए परशुराम ने अपने परशु अर्थात फरसा से अपनी माँ रेणुका का वध कर दिया था। जब प्रसन्न पिता ने उनसे वर माँगने को कहा तो उन्होंने अपनी माँ का ही पुनर्जीवन माँग कर माँ को पुनः प्राप्त कर लिया। भार्गव परम्परा के लोग नर्मदा के किनारे रहा करते थे और आनर्त (गुजरात) के हैहय राजवंश के कुलगुरु थे।

बाद में हैहयों से मनमुटाव हो जाने के कारण अपने तिरस्कर्ता राजाओं से झगड़ने की बजाय भार्गव कुल के लोग कान्यकुब्ज में जाकर बस गये थे। परन्तु जमदग्नि के साथ हैहयों के हाथों हुए एक अपमान को उनके पुत्र परशुराम सहन नहीं कर पाए और शस्त्र विद्या पर परमज्ञान प्राप्त कर वे अनेक राजाओं का महासंघ बनाकर हैहयों से उलझ पड़े और एक महासमर को नेतृत्व दिया जिसमें हैहय स्थान- स्थान पर बार- बार पराजित हुए। फरसे और दूसरे कई तरह के शस्त्रों से हैहयों के साथ लड़े गए युद्ध के कारण परशुराम नाम का सम्बन्ध ही फरसे के साथ बन गया है। हैहयों के साथ एक लम्बी चली लड़ाई में इक्कीस स्थानों पर पराजय देने वाले परशुराम के बारे में यह किम्बदन्ती फ़ैल गई कि उन्होंने इक्कीस बार इस धरती पर क्षत्रियों का समूलोन्मूलन कर दिया। इक्कीस बार समूलोन्मूलन के सम्बन्ध में परशुराम के हाथों एक बड़े बड़े भू-भाग पर फैले राजवंशों के बड़े पैमाने पर विनाश की कथाएं पुराणों में अंकित मिलती हैं। इस घटना के बाद भार्गव के बजाय परशुराम नामक एक नया कुल अर्थात वंश परम्परा चल पड़ा, और वह हर वंशज, जो युद्धविद्या में प्रवीण हो जाते थे, स्वयं को परशुराम कहलाना ही पसंद करने लगे। इसलिए जो राम से उलझे वे भी परशुराम, और जो भीष्म से लड़े वे भी परशुराम हो गये ।

परशुराम भारतीय इतिहास के पहले ऐसे विद्वान अर्थात ब्राह्मण पात्र हैं, जिन्होंने किसी राजा को दंड देने के लिए राजाओं को ही एक जुटकर उससे लोहा लिया था। इसके पूर्व पुरुरवा, वेन, नहुष, शशाद जैसे राजाओं की दुष्टताओं, लापरवाहियों को दंडित करने के लिए ऋषि या विद्वान अपने ही स्तर पर स्वयं आगे आए थे। यह भी एक आश्चर्यजनक तथ्य है कि सहस्त्राब्दियों वर्ष पूर्व सतयुग अर्थात कृतयुग के अंत में परशुराम ने उत्तर और पूर्व के राजाओं का एक महासंघ बनाकर आज के गुजरात के हैहय राजाओं के विरुद्ध एक महासंग्राम को विजयी नेतृत्व प्रदान किया था। यही कारण है कि परशुराम के नेतृत्व में हैहयों के विरुद्ध सत्ययुग के अंत में हुई इस महासंग्राम के विजेता महानायक परशुराम सर्व लोकख्यात हो गये। और स्थिति यह हो गई कि वसिष्ठों और विश्वामित्रों की वंश परम्परा की भांति ही परशुराम जिस भार्गव वंश के थे, इसकी पूरी एक वंश परम्परा बन गई, जिसके सभी महापुरुष स्वाभाविक रूप से भार्गव अथवा परशुराम कहलाए। और वर्तमान में वसिष्ठों और विश्वामित्रों की तरह सभी भार्गव अर्थात सभी परशुराम भी एक हो गए हैं।

इसके बाद त्रेतायुग में एक परशुराम थे, जिन्होंने शिव धनुष तोड़ने वाले श्रीराम, और फिर उनके अनुज लक्ष्मण के साथ विवाद किया, उनके शौर्य को चुनौती दी और राम से अपना मद-दलन करवा कर लौटे। तत्पश्चात द्वापर में एक परशुराम हुए, जिन्होंने अम्बा से भीष्म पितामह की विवाह कराने के लिए भीष्म से युद्ध किया। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि परशुराम सतयुग, त्रेतायुग और द्वापर युग तीन युगों तक जीवित रहे। पौराणिक मान्यतानुसार वे आज भी जीवित हैं तथा वर्तमान समय में भी कहीं तपस्या में लीन हैं। और वे भविष्य में कल्कि अवतार में विष्णु के उस दसवें अवतार कल्कि के गुरु पथप्रदर्शक बनेंगे उन्हें युद्ध की शिक्षा देंगे। और परशुराम ही कल्कि को भगवान शिव की तपस्या करके उनके दिव्यास्त्र को प्राप्त करने का निर्देश देंगे। यही कारण हिया कि परशुराम को सप्तचिरंजीवियों अथवा अष्टचिरंजीवियों में भी शामिल किया गया है। विद्वानों का कहना है कि विविध युगों में उपस्थित सभी परशुराम एक ही व्यक्ति नहीं हो सकते बल्कि यह परशुराम के वंशजों की वंश परम्परा के विभिन्न युग में जन्म लेने वाले कई व्यक्ति हैं।

पौराणिक मान्यतानुसार विष्णु के षष्ठम अवतार भगवान परशुराम का जन्म भृगुश्रेष्ठ महर्षि जमदग्नि द्वारा सम्पन्न पुत्रेष्टि यज्ञ से प्रसन्न देवराज इन्द्र के वरदान स्वरूप पत्नी रेणुका के गर्भ से वैशाख शुक्ल तृतीया को हुआ था। पितामह भृगु द्वारा सम्पन्न नामकरण संस्कार के अनन्तर उन्हें राम, जमदग्नि का पुत्र होने के कारण जामदग्न्य तथा शिव के द्वारा प्रदत्त परशु धारण किये रहने के कारण वे परशुराम कहलाये। परशुराम जिस कुल में जन्मे उसके आदिपुरुष का नाम भृगु होने के कारण ही उनके सभी वंशज भार्गव कहलाते हैं। परशुराम की प्रारम्भिक शिक्षा – दीक्षा महर्षि विश्वामित्र एवं ऋचीक के आश्रम में हुई। महर्षि ऋचीक से सारंग नामक दिव्य वैष्णव धनुष और ब्रह्मर्षि कश्यप से विधिवत अविनाशी वैष्णव मन्त्र उन्हें प्राप्त हुआ। तत्पश्चात कैलाश गिरिश्रृंग पर स्थित भगवान शंकर के आश्रम में विद्या प्राप्त कर विशिष्ट दिव्यास्त्र विद्युदभि नामक परशु प्राप्त किया।

शिव से उन्हें श्रीकृष्ण का त्रैलोक्य विजय कवच, स्तवराज स्तोत्र एवं मन्त्र कल्पतरु भी प्राप्त हुए। चक्रतीर्थ में किये उनके कठिन तप से प्रसन्न हो भगवान विष्णु ने उन्हें त्रेता में रामावतार होने पर तेजोहरण के उपरान्त कल्पान्त पर्यन्त तपस्यारत भूलोक पर रहने का वर दिया। शस्त्रविद्या के महान गुरु परशुराम ने भीष्म, द्रोण व कर्ण को शस्त्रविद्या प्रदान की थी। उन्होंने एकादश छन्दयुक्त शिव पंचत्वारिंशनाम स्तोत्र भी लिखा। पुरुषों के लिए  आजीवन एक पत्नीव्रत के पक्षधर परशुराम ने अत्रि की पत्नी अनसूया, अगस्त्य की पत्नी लोपामुद्रा व अपने प्रिय शिष्य अकृतवण के सहयोग से विराट नारी जागृति अभियान का संचालन भी किया था।

पुराणों में उनके अब भी बचे अवशेष कार्यो में विष्णु के कल्कि अवतार होने पर उनका गुरुपद ग्रहण कर उन्हें शस्त्रविद्या प्रदान करना भी बताया गया है। भीष्म और कर्ण आदि कुछ अपवादों को क छोड़ उन्होंने सैन्यशिक्षा केवल विद्वानों अर्थात ब्राह्मणों को ही दी। उनके जाने-माने शिष्य भीष्म पितामह , कौरव-पाण्डवों के गुरु व अश्वत्थामा के पिता द्रोणाचार्य एवं कर्ण थे। शस्त्र विद्या के श्रेष्ठ ज्ञाता परशुराम केरल के मार्शल आर्ट कलरीपायट्टु की उत्तरी शैली वदक्कन कलरी के संस्थापक आचार्य एवं आदि गुरु हैं। वदक्कन कलरी अस्त्र-शस्त्रों की प्रमुखता वाली शैली है। परशुराम वैदिक संस्कृति के पूर्णतः अवलंबनकर्त्ता थे और उनका उद्देश्य इस जीव सृष्टि को इसके प्राकृतिक सौंदर्य सहित जीवन्त बनाये रखना था। ऐसी मान्यता है कि पृथु महाराज के ग्राम, खंड आदि के प्रक्षेत्र निर्धारण के बाद भारत के अधिकांश ग्राम परशुराम के द्वारा बसाये गये।

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Written by rannlabadmin

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