मीडिया में बागी के नाम से पेश किए जा रहे ये सारे नेता अपने निजी हितों को प्राथमिकता देने वाले हैं। ये कोई चंद्रशेखर, रामधन या मोहन धारिया नहीं हो रहे हैं कि वैचारिक आधार पर नेतृत्व से टकरा गए और एक बार अलग हो गए तो अलग हो गए। ये सब मीडिया के बनाए ‘बागी’ हैं, जैसे ज्योतिरादित्य सिंधिया, जितिन प्रसाद, आरपीएन सिंह आदि हैं। उन्हीं की तरह इन सब ‘बागियों’ की भी अगली मंजिल वहां होगी, जहां से कुछ प्राप्ति होगी। विचारधारा या संगठन से इसका कोई लेना-देना नहीं है।
कांग्रेस पार्टी के नेताओं के एक समूह ने बुधवार को गुलाम नबी आजाद के घर पर एक बैठक की और एक बयान भी जारी किया। इस बयान में कांग्रेस के ‘सामूहिक और समावेशी नेतृत्व’ की जरूरत बताई गई। इसे जी-23 नेताओं का समूह कहा जा रहा है, जिन्होंने अगस्त 2020 में कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी को चिट्ठी लिखी थी और संगठन के हर पद पर चुनाव कराने की मांग की थी। यह समूह जी-23 नेताओं का है, लेकिन बैठक के बाद जो बयान जारी हुआ उस पर 18 नेताओं के नाम थे। पुराने जी-23 के कुछ नेता कांग्रेस छोड़ कर भाजपा में चले गए हैं लेकिन बचे हुए नेताओं में से भी कई नदारद थे। पुराने जी-23 के नेताओं के अलावा कुछ नए नेता इस बैठक में शामिल हुए फिर भी संख्या 18 रही!
अब इन 18 नेताओं की प्रोफाइल देखें तो समझ में आता है कि इनमें से कुछ तो ऐसे हैं, जो सचमुच नाराज हैं क्योंकि उनको अपने प्रदेश की राजनीति में तरजीह नहीं मिली। ऐसे नेताओं में मनीष तिवारी का नाम अव्वल है। पंजाब में नवजोत सिंह सिद्धू हों या चरणजीत सिंह चन्नी किसी ने उनको घास नहीं डाली। सोनिया गांधी ने उनको संसदीय रणनीति बनाने वाले समूह में रखा है लेकिन उन्होंने सार्वजनिक रूप से शिकायत की है कि चन्नी के शपथ समारोह में उनको नहीं बुलाया गया, जबकि भगवंत मान ने उनको बुलाया। उन्होंने सबूत के तौर पर भगवंत मान के शपथ समारोह का निमंत्रण पत्र भी सोशल मीडिया में डाला। सोचें, ऐसे ‘बागी’ नेता के बारे में, जिनको शिकायत है कि मुख्यमंत्री के शपथ समारोह में उनको नहीं बुलाया गया था!
एक समूह ऐसे नेताओं का है, जिनकी राज्यसभा खत्म हो गई या खत्म होने वाली है, लेकिन कांग्रेस आलाकमान उनको फिर से राज्यसभा में भेजने में सक्षम नहीं है या भेजना नहीं चाहता है। ऐसे नेताओं में गुलाम नबी आजाद, आनंद शर्मा, कपिल सिब्बल आदि शामिल हैं। इनकी बगावत पूरी तरह से निजी हित से निर्देशित हो रही है। ये सब बिना जमीनी आधार वाले नेता हैं। जमीनी राजनीति के अलावा विशुद्ध रूप से अपनी किसी अन्य ‘योग्यता’ के दम पर इन नेताओं ने राजनीतिक जीवन बिताया है। लेकिन अब लग रहा है कि कांग्रेस में उनकी उस ‘योग्यता’ की कद्र नहीं है और दूसरी जगह उस ‘योग्यता’ की अच्छी कीमत मिल सकती है तो वे ‘बागी’ हो गए हैं।
ऐसे ही ‘बागी’ नेताओं की श्रेणी के एक नेता भूपेंदर सिंह हुड्डा हैं। वे भी जी-23 के सदस्य रहे हैं और गुलाम नबी आजाद के घर हुई बैठक में शामिल हुए थे। अपने पिता की विरासत के साथ कांग्रेसी बने हुड्डा को कांग्रेस ने 10 साल हरियाणा का मुख्यमंत्री बना कर रखा था। 2004 में जब वे मुख्यमंत्री बने थे तब भजनलाल प्रदेश अध्यक्ष थे और पार्टी उनके चेहरे पर चुनाव लड़ी थी। लेकिन कांग्रेस की पुरानी फितरत के मुताबिक सोनिया गांधी ने भूपेंदर सिंह हुड्डा को अपने परिवार के प्रति ज्यादा वफादार मानते हुए मुख्यमंत्री बना दिया और 10 साल बनाए रखा। पिछले आठ साल से कांग्रेस विपक्ष में है, जिसकी मुख्य वजह भी हुड्डा ही हैं इसके बावजूद सोनिया ने विपक्ष वाली कांग्रेस की कमान भी उन्हीं को दे रखी है। लेकिन अब वे चाहते हैं कि जैसे उन्होंने अपने पिता की विरासत संभाली वैसे ही उनका बेटा उनकी विरासत संभाले। ऐसा होने की संभावना कम दिख रही है इसलिए वे भी ‘बागी’ हो गए हैं।
एक समूह ऐसे नेताओं का है, जो अपने मां-बाप या दादा-दादी के नाम पर राजनीति में हैं और चाहते हैं कि कांग्रेस आलाकमान उनको आगे भी उसी नाम पर महत्व देता रहे, चाहे वे राजनीति में सक्रिय रहें या नहीं। ऐसे नेताओं में संदीप दीक्षित, पृथ्वीराज चव्हाण आदि के नाम हैं। संदीप दीक्षित की मां दिल्ली में राजनीति करती थीं और दादा उत्तर प्रदेश के नेता थे लेकिन वे सब छोड़ कर भोपाल चले गए और वहां एनजीओ चला रहे हैं। उनकी मां को कांग्रेस ने 15 साल मुख्यमंत्री बना कर रखी। वे खुद भी सांसद रहे और बाद में सांसद का चुनाव हारने के बाद दिल्ली छोड़ कर गए फिर भी उनको शिकायत है कि कांग्रेस उनका ध्यान नहीं रख रही है। पृथ्वीराज चव्हाण भी आलाकमान की कृपा से केंद्र में मंत्री और महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री रहे। अभी की मौजूदा सरकार में उनको कोई भूमिका नहीं मिली है इसलिए वे भी ‘बागी’ हो गए हैं।
आजाद के घर पर जुटे नेताओं का एक समूह पलक झपकते दलबदल करने वालों का है, जिसमें शंकर सिंह वाघेला और राज बब्बर के नाम लिए जा सकते हैं। वाघेला इस समय देश के मान्यता प्राप्त दलों में से ज्यादातर दलों में रह चुके हैं। राज बब्बर भी समाजवादी पार्टी छोड़ कर कांग्रेस में शामिल हुए थे और लोकसभा व राज्यसभा दोनों के सदस्य रहे। उत्तर प्रदेश का होने के बावजूद कांग्रेस आलाकमान ने उनको मौका मिलने पर उत्तराखंड से राज्यसभा में भेजा था। लेकिन अब कांग्रेस उनको भी कुछ देने की स्थिति में नहीं है तो वे भी ‘बागी’ हो गए हैं।
इसके अलावा आजाद के घर पर रात्रिभोज में शामिल हुए नेताओं का एक समूह ऐसा है, जो गांधी परिवार के प्रति निष्ठावान है या कम से कम विरोध में नहीं है फिर भी घुस कर तमाशा देखने की फितरत में आजाद के यहां रात्रिभोज में शामिल गया। इनमें शशि थरूर, मणिशंकर अय्यर, अखिलेश प्रसाद सिंह, विवेक तन्खा आदि के नाम लिए जा सकते हैं। ये सब लोग ‘बागी’ नहीं हैं और इनमें से तीन लोग तो सांसद भी हैं। कुल मिला कर मीडिया में बागी के नाम से पेश किए जा रहे ये सारे नेता अपने निजी हितों को प्राथमिकता देने वाले हैं। ये कोई चंद्रशेखर, रामधन या मोहन धारिया नहीं हो रहे हैं कि वैचारिक आधार पर नेतृत्व से टकरा गए और एक बार अलग हो गए तो अलग हो गए। ये सब मीडिया के बनाए ‘बागी’ हैं, जैसे ज्योतिरादित्य सिंधिया, जितिन प्रसाद, आरपीएन सिंह आदि हैं। उन्हीं की तरह इन सब ‘बागियों’ की भी अगली मंजिल वहां होगी, जहां से कुछ प्राप्ति होगी। विचारधारा या संगठन से इसका कोई लेना-देना नहीं है।
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