भोपाल। अब पहली बार ऐसा लगने लगा है कि देश में साम्प्रदायिक धु्रवीकरण अब दक्षिण राज्यों से आ रहा है, अभी तक इसके लिए हिन्दी और हिन्दू बाहुल्य उत्तरी राज्यों को दोषी ठहराया जाता रहा है। मुस्लिम महिलाओं द्वारा पहने जाने वाले हिजाब (बुरखा) को लेकर यह विवाद कर्नाटक उच्च न्यायालय की एक टिप्पणी से शुरू हुआ, जिसमें कहा गया कि किसी भी धर्म का अनिवार्य हिस्सा हिजाब नही है, इसलिए सभी धर्म के छात्र-छात्राओं को स्कूल की यूनीफार्म पहनना जरूरी है। उच्च न्यायालय के इस फैसले से देश के एक धर्म विशेष के अनुयायियों में उबाल सा आ गया है और इस टिप्पणी के खिलाफ सर्वोच्च न्यायालय का द्वार भी खटखटाया गया है। इस विवाद को लेकर मुख्यतः तीन सवाल हवा में लहराये गए, पहला- क्या ईस्लाम में हिजाब पहनना आवश्यक बताया गया है। hijab controversy karnataka
दूसरा- क्या स्कूल व कॉलेजों में यूनीफार्म पहनना जरूरी होने से मौलिक अधिकारों पर हमला हुआ है और तीसरा- कर्नाटक कोर्ट ने पांच फरवरी को जो फैसला सुनाया था संविधान के अनुच्छेद 14 और 15 का उल्लंघन करता है? इन सवालों पर कोर्ट का जवाब था कि ईस्लाम में हिजाब पहनने को जरूरी नहीं बताया गया है और वह आवश्यक प्रथा नही है, दूसरे सवाल के जवाब में कोर्ट ने कहा कि स्कूलों और कॉलेजों में ‘‘डेªसकोड’’ लागू करना गलत नही है और इस पर छात्र-छात्राएं अपनी नही कर सकते, तीसरे सवाल के जवाब में कोर्ट का कहना है कि सरकार के पास आदेश देने का अधिकार है। कर्नाटक उच्च न्यायालय के इसी फैसले के खिलाफ चैन्नई से खिलाफत शुरू हुई और छात्राओं ने सर्वोच्च न्यायालय में याचिका दायर की।
यही नहीं छात्राओं ने इस फैसले के बाद राज्य के एक प्रमुख कॉलेज की मुस्लिम छात्राओं ने हिजाब को अहमियत देते हुए परीक्षा का बहिष्कार कर दिया। इस फैसले पर विवाद इतना बढ़ गया कि इस पर जम्मू-कश्मीर से चैन्नई तक बवाल खड़ा हो गया, कश्मीरी घुरविरोधी नेता मेहबूबा मुफ्ती और उमर अब्दुल्ला इस मसले पर एक साल खड़े नजर आए, वही वरिष्ठ मुस्लिम नेता असदुदीन औबेसी ने भी विरोधी स्वर अख्तियार किया जबकि महिला मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड की सदस्य ने कोर्ट को इस टिप्पणी को स्वागत योग्य माना, सुश्री शाहिस्ता अम्बर ने कहा कि शिक्षण संस्थाओं के नियम सभी के लिए बाध्यकारी है।
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यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि कर्नाटक उच्च न्यायालय ने यह भी आशंका व्यक्त की है कि इस हिजाब विवाद को कोई तो हवा दे रहा है? सामाजिक समरसता खत्म करने और अशांति पैदा करने की गरज से ऐसा किया जा रहा है।
इसी हिजाब विवाद के बीच एक अहम् सवाल यह भी उठाया जा रहा है कि आज तो कॉलेज स्कूल की लड़कियां घुटने से फटी पैंट पहन शिक्षण संस्थाओं में जाती है, यही नहीं अब तो इसे फैशन में शुमार कर लिया गया है, फिर ऐसे माहौल में हिजाब को लेकर इतना विवाद क्यों? वैसे भी हमारे संविधान में खाने-पहनने और अपने तरीके से जीवन बसर करने की पूरी स्वतंत्रता दे रखी है और फिर इसी स्वतंत्रता के तहत यदि कोई अपना सौन्दर्य सार्वजनिक नहीं करना चाहता है और हिजाब पहना जाता है तो फिर इस पर आपत्ती का सवाल ही कहां पैदा होता है, किंतु यदि आप किसी शिक्षण संस्थान के छात्र है और वहां अध्ययन जारी रखना चाहते है तो फिर उक्त शिक्षण संस्थान के नियमों का पालन तो करना ही पड़ेगा। क्योंकि ये शिक्षण संस्थाएं किसी धर्म विशेष की न होकर सरकार की होती है और सरकारी संस्थानों में धर्म सम्बंधी भेदभाव नहीं किया जाता। कर्नाटक हाई कोर्ट की भी अपने फैसले में यही भावना निहित है।
पर पता नहीं, आज-कल तो हर मामले में राजनीति का प्रवेश पहले होता है, इसी कारण से कहा जा रहा है कि- ‘‘अब घट-घट में भगवान नहीं, बल्कि उनकी जगह राजनीति ने ले ली है’’। हिजाब काण्ड के साथ ही इस बात का दूसरा उदाहरण कश्मीर पर आई फिल्म ‘‘द कश्मीर फाईल्स’’ है, जिसके रिलीज होते ही राजनीति शुरू हो गई, जिसके प्रथम सूत्रधार माननीय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जी रहे, उन्हें इस फिल्म को लेकर पूर्ववर्ती कांग्रेस सरकार को कोसने का मौका जो मिल गया, जबकि कश्मीरी पण्डितों का निर्दयतापूर्ण निष्कासन केन्द्र में आरूढ़ भाजपा सरकार के दौरान ही हुआ था, अपने राजनीतिक स्वार्थ के लिए इस कटु सत्य को भुला देना कहां तक उचित है?
खैर, जो भी हो, किंतु आज विभिन्न मसलों को लेकर जिस तरह का जानबूझकर माहौल बनाया जा रहा है, क्या वह देशहित में है? इस गंभीर प्रश्न का गहन चिंतन कर जवाब खोजना चाहिये।
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