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Congress political crisis cwc कांग्रेस में सब हो गए सलाहवीर

सीडब्ल्यूसी की मीटिंग हो गई। गालिब के लफ्जों में “देखने हम भी गए थे पे तमाशा न हुआ!” बहुत तैयारी के साथ आए बागियों के नेता गुलामनबी आजाद और आनंद शर्मा ने बेमतलब की तकनीकी बातें उठाईं और वह सब कुछ नहीं बोल पाए जो वे मीडिया में कहते रहते हैं। पंजाब में अमरिन्द्र सिंह को दो महीने पहले क्यों नहीं हटाया और हरीश रावत को उत्तराखंड में डेढ़ महीने पहले कमान क्यों नहीं दी जैसे चौराहों पर किए जाने वाले सवाल ही पूछते रहे।

गरीब को सलाह देने वालों की भीड़ लगी रहती है। मगर मदद कोई नहीं करता। कांग्रेस की हालत आजकल उसी निर्धन जैसी है। हर आदमी के पास उसके मर्ज काइलाज है। मगर दवा खरीदने का पैसा देने को कोई तैयार  नहीं। पास नजदीक के रिश्तेदार, परिवार के लोग भी नहीं। और उस पर मजेदार यह है कि तकलीफ उसके पांवों में है। लगातार चलते, भागते छाले पड़ गए हैं। मगर सलाहकार दिल के आपरेशन की सलाह दे रहे हैं। दिल तो मजबूत है। इतने सालों तक लड़ता रहा। आज भी हिम्मत से लड़ रहा है। मगर दुश्मनों के साथ दोस्त भी चाहते हैं कि दिल का आपरेशन हो जाए तो थोड़ा कमजोर हो जाए। डरपोक हो जाए।

सीडब्ल्यूसी की मीटिंग हो गई। गालिब के लफ्जों में “देखने हम भी गए थे पे तमाशा न हुआ!” बहुत तैयारी के साथ आए बागियों के नेता गुलामनबी आजाद और आनंद शर्मा ने बेमतलब की तकनीकी बातें उठाईं और वह सब कुछ नहीं बोल पाए जो वे मीडिया में कहते रहते हैं। पंजाब में अमरिन्द्र सिंह को दो महीने पहले क्यों नहीं हटाया और हरीश रावत को उत्तराखंड में डेढ़ महीने पहले कमान क्यों नहीं दी जैसे चौराहों पर किए जाने वाले सवाल ही पूछते रहे। आनंद शर्मा कह रहे थे कि जब में अपने राज्य हिमाचल जाता हूं तो लोग पूछते हैं।

क्या पूछते हैं? कि कभी लोकसभा, विधानसभा या पंचायत का भी चुनाव क्यों नहीं लड़ा? हमेशा वहां के कांग्रेसी मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह के खिलाफ साजिशें करने के अलावा और राज्य में क्या काम किया? आज जिन सोनिया गांधी के नेतृत्व के खिलाफ पत्र लिख रहे हो, चुनाव से पद तय करने की बात कर रहे हो उनसे मनोनयन करवाकर राज्यसभा क्यों लेते रहे? राज्यसभा में कांग्रेस के उपनेता किस चुनाव से बने थे? केन्द्र में मंत्री, यूथ कांग्रेस का अध्यक्ष सब बने। मगर आज जब राज्यसभा का टर्म खत्म होने का समय आया तो बागी बनकर हाई कमान पर दबाव बना रहे हैं। कांग्रेस का कोई भरोसा नहीं है। उन्हें राज्यसभा दे लकती है। सीडब्ल्यूसी की मीटिंग से पहले राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत से उनकी मुलाकात हुई। आनंद शर्मा ने अपने तेवर नरम किए। दूसरे बागी नेताओं में इससे बैचेनी है। कपिल सिब्बल बोलते रहें कि हां हम जी 23 हैं। मगर अब 23 में से कितने बचे हैं कहना मुश्किल है। जिसे भी कांग्रेस के बाहर उम्मीद नहीं दिख रही है। वह यहीं इसी तनखा पर या कम पर भी काम करने की हामी भर रहा है।

आनंद शर्मा को कोई क्यों लेगा? क्या योग्यता या उपयोगिता है उनकी? प्रेस कान्फ्रेंस में चिल्लाने की? वह तो उनसे कई गुना ज्यादा करने वाले रविशंकर प्रसाद की भी काम में नहीं आई। आजकल अज्ञातवास में हैं। रविवार के ढीले तेवर देखकर यह लग गया कि कांग्रेस के बाहर उन्हें कोई लिफ्ट देने को तैयार नहीं है। गहलोत के साथ मुलाकात में उनकी समझ में यह भी आ गया कि आजाद का राज्य कश्मीर होने के वजह उन्हें भाजपा में कुछ मिल सकता है। मगर हिमाचल में जहां जल्दी ही चुनाव होने वाले हैं शायद ही भाजपा उन्हें कुछ दे। हां, आप वहां बड़ी ताकत से जा रही है उसे कांग्रेस के रिजेक्टेड लोगों की जरूरत हो सकती है।

सीडब्ल्यूसी की मीटिंग का लब्बोलुबाब यह है। मीटिंग असंतुष्टों के कहने से ही बुलाई थी। रिजल्ट पूरे भी नहीं आए थे कि मनीष तिवारी जो किस वजह से नाराज हैं, आज तक कोई नहीं समझ पाया ने कहना शुरू कर दिया कि राहुल गांधी से पूछो। बाकी लोग तो सब अपनी पारी खेल चुके हैं, मगर मनीष अभी फार्म में आना शुरु ही हुए थे कि विनोद कांबली बन गए। आजाद, आनंद शर्मा, कपिल सिब्बल अब उस अवस्था में हैं जहां वे घर के बुजुर्ग की तरह कुड़कुड़ाने (नाराजगी में प्रलाप करना) का भी आनंद ले सकते हैं। मगर मनीष भरी जवानी में उस स्थिति तक पहुचंने के बेताब लग रहे हैं।

तो असंतुष्टों के बुलाने से ही मीटिंग हुई थी और असंतुष्ट ही कुछ नहीं बोल पाए। नहीं तो इतनी जल्दी पार्टी की सबसे उच्च स्तरीय इकाई की बैठक बुलाने का कोई तुक नहीं है। दस मार्च को मतगणना थी। 11 तक रिजल्ट आए। और 13 को कांग्रेस वर्किंग कमेटी की बैठक। कायदे से इससे पहले पांचों राज्यों की प्रदेश समितियों, वहां के प्रभारी, हर जिले में भेजे गए आब्जर्वर, प्रत्याशियों से बात होना चाहिए थी। मैदान में लड़े कार्यकर्ताओं से फीड बैक लेना चाहिए था। फिर उन सबसे मिली जानकारियों के आधार पर वरिष्ठ नेताओं एक छोटा समूह कुछ निष्कर्षों पर पहुंचता, तब सीडब्ल्यूसी होती तो कुछ बात भी निकलती। अभी तो बागियों के दबाव में बुलाकर एक खानापूरी हो गई और वह सवाल जिसे जानने का अधिकार सबसे ज्यादा जिस कार्यकर्ता को है वह अनुत्तरित ही रह गया। आज की तारिख में कांग्रेस का मूल सवाल यह है कि क्या राहुल गांधी अध्यक्ष बनेंगे? कांग्रेस में

परिवर्तन, नया उत्साह 2024 के लोकसभा चुनाव, उससे पहले कई राज्यों के विधानसभा चुनाव सब इसी बात पर निर्भर करते हैं कि राहुल कमान संभालेंगे या नहीं। राहुल को अब इस पर्दे को उठा देना चाहिए। कांग्रेस में पता नहीं कौन किस को क्या सलाह दे आता है। कहीं किसी ने यह तो नहीं कह दिया कि अगर राहुल के अध्यक्ष बनने की बात बाहर गई तो कोई कोर्ट से जाकर राहुल के चुनाव लड़ने पर रोक का आर्डर न ले आए। दोनों बाते सही हो सकती हैं। कोई ऐसी सलाह भी दे सकता है। और कोर्ट से ऐसा आदेश भी आ सकता है। आज के समय में क्या नहीं हो सकता! कुछ भी हो सकता है। लेकिन हो जाए। इन चीजों को कोई रोक भी नहीं सकता।  हम मजाक में कह रहे हैं। व्यंग्य कर रहे हैं। मगरकहते हैं कि बुरे समय में व्यंग्य ही सही होने लगते हैं। यथार्थ बन जाते हैं।

जिन्हें आप मददगार समझते हैं वे केवल सलाहकार बनकर ही रह जाते हैं। जम्मू-कश्मीर में आतंकवाद के सबसे खराब दौर के बाद जब 1996 में 9 साल बाद चुनाव करवाए गए। और फारुख अब्दुल्ला मुख्यमंत्री बने तो उन्होंने अपने मित्र और केन्द्रीय रक्षामंत्री जार्ज फर्नांडिस को वहां बुलाया। राज्य की आर्थिक स्थिति लघु उद्योग तबाह थे। फारुख ने राज्य में उत्पादित होने वाले सामानों की एक बड़ी प्रदर्शनी लगवाई। फर्नाडिंस ने उसका दौरा किया। फारूख को उम्मीद थी कि फर्नांडिस रक्षा मंत्रालय में इनकी बड़ी खरीद की व्यवस्था करके राज्य की मदद करेंगे। गर्म कपड़े, जिनकी सेना को जरूरत होती है, फलों का पैक्ड जूस, जैम, मेवे और अन्य चीजें आर्मी कैंटिन में बिकवाने की व्यवस्था करेंगे। मगर फर्नांडिस खूब घुमकर, देखकर सलाह देते हुए चले गए कि इसको ऐसे कर लो उसको वैसे। उन दिनों हम वहीं पोस्टेड थे। लिखा था कि जार्ज को मददगार समझ कर बुलाया वे सलाहकार बन कर चले गए।

ऐसा ही हाल आजकल कांग्रेस के साथ हो रहा है। उसके जो नेता घरों में बैठे हुए हैं वे सलाहें देने में सबसे आगे हैं। सब सलाहवीर बने हुए हैं। जैसा कि सीडब्ल्यूसी में प्रियंका गांधी ने कहा कि यूपी में सबको बुलाया था। आजाद का भी नाम था। मगर नहीं आए। कपिल सिब्बल तो यूपी से राज्यसभा सदस्य हैं। खुद ही जाना था। मगर नहीं गए।

कांग्रेस हार गई। मगर क्या यह राहुल और प्रियंका की हार है? अगर ऐसा था तो हार के तत्काल बाद बुलाई सीडब्ल्यूसी की बैठक में कहना चाहिए था। वहां तो किसी ने नहीं कहा। यह हार दरअसल मुद्दों की है। जिन्दगी से जुड़े मुद्दों की। जनता को धर्म और जाति की अफीम चटा चटाकर एक पिनक में डाल दिया गया है। उसे अपने नुकसान, फायदे, भले बुरे किसी का बोध नहीं है। भविष्य का तो बिल्कुल नहीं। आज का दिन जोश, उन्माद, नफरत की आग में निकल जाए, दूसरों का बुरा होने के सपने आते रहें, बस इतना ही सरोकार बचा है। मगर यह हमेशा नहीं चलेगा। नशा तो एक दिन टूटेगा। लेकिन तब तक तबाही बहुत हो चुकी होगी। राहुल हों या प्रियंका या कोई और उन्हें इसी से लड़ना है कि जनता जागे। जल्दी जागे। सब कुछ खत्म होने से पहले।

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Written by rannlabadmin

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