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congress party political crisis गांधी-नेहरू खूंटा तभी कांग्रेस और विकल्प भी!

कांग्रेस को ले कर स्यापा है। कोई उस पर परिवारवाद का ठीकरा फोड़ रहा है, उसे प्राइवेट लिमिटेड करार दे रहा है तो कोई उसे खत्म मान रहा है। कोई राहुल गांधी को कोस रहा है तो कोई उसके कारण सन् 2024 का चुनाव नरेंद्र मोदी का तय मान रहा है। ऐसे ही कई लोग सोनिया-राहुल-प्रियंका को असली-सच्ची कांग्रेस बनाने में बाधक मानता है। मोटा मोटी कांग्रेसी हताश हैं, निराश हैं और अधिकांश राहुल गांधी को नासमझ, निकम्मा, नालायक मान सोच रहे होंगे कि उन्हें कब अक्ल आएगी? कब सोनिया गांधी समझेंगी? राहुल के चक्कर में प्रियंका की संभावना भी खत्म कर दी है। क्यों यूपी में भाई-बहन ने ऐसे प्रतिष्ठा दांव पर लगाई? क्यों सोनिया गांधी पुत्रमोह में राहुल गांधी का कहना मान रही हैं? वे क्यों नहीं किसी गैर-परिवार नेता को अध्यक्ष बना कांग्रेस में जान डालती हैं? सोनिया गांधी को भी सोचना चाहिए कि पार्टी को ऐसे खत्म होने दे कर वे अपने ही परिवार की विरासत को मिटा देने का इतिहासजन्य पाप करेंगी!

दरअसल, देश का हर वह व्यक्ति सोनिया-राहुल गांधी से दुखी है जो नरेंद्र मोदी के आइडिया ऑफ इंडिया में घुटन महसूस करता है। हर वह नेता सोनिया-राहुल गांधी को कोसते हुए है, जो मोदी राज के कारण सत्ता से बेदखल है। पॉवर का भूखा है। हर वह जमात, वह वर्ग नाराज है, जिसने सेकुलर आइडिया ऑफ इंडिया के वक्त में मलाई खाई। जो लुटियन दिल्ली का एलिट था। ये सब सोचते और मानते हैं कि नरेंद्र मोदी लगातार जीत रहे हैं तो वजह राहुल गांधी हैं। उनकी नासमझी और निकम्मेपन की लोगों के दिल-दिमाग में ऐसी छाप पैठी है कि वे मोदी के बतौर विकल्प क्लिक नहीं हो सकते। इसलिए उनसे (गांधी-नेहरू परिवार) कांग्रेस की मुक्ति जरूरी है।

कैसे? जवाब में तमाम तरह की पतंगबाजी है। हाल-फिलहाल की सुर्खियों में कपिल सिब्बल की दलील है कि वक्त का तकाजा है जो घर की जगह सबकी कांग्रेस बने! उधर अमेरिकी मॉडल पर मतदाताओं के कच्चे माल को फैक्टरी में अलग-अलग फॉर्मूलों से पका कर प्रोडक्शन लाइन पर भक्त वोटरों में कन्वर्ट करने के पेशेवर प्रशांत किशोर की थीसिस है कि कांग्रेस ‘विकल्प’ के स्पेस पर कब्जा जमाए हुए है सो, वह उसे खाली करे। लोगों के दिमाग में भाजपा और मोदी के आगे कांग्रेस और राहुल का चेहरा बना हुआ है, वह विकल्प के बोर्ड पर है तो जब तक विपक्ष की दुकान पर लगा खानदानी चेहरों का बोर्ड नहीं हटेगा तब तक लोगों में विकल्प की दुकान लोक-लुभावन नहीं होगी। सो, विकल्प के खातिर नई कांग्रेस बने, नई दुकान और उसका बोर्ड हो या तृणमूल जैसी कोई अपने को अखिल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस बनाए तो उसकी लीडरशीप में फिर क्षेत्रीय पार्टियों का ग्रैंड एलायंस बनना संभव होगा। तब सन् 2024 में नरेंद्र मोदी हार सकेंगे।

सो परिवारवादी खूंटे से कांग्रेस को छूटाना सन् 2024 के चुनाव की तात्कालिकता से है तो दीर्घकालीन मकसद सेकुलर आइडिया ऑफ इंडिया के इकलौते प्रणेता-पोषक परिवारवादी गांधी-नेहरू खूंटे को हमेशा के लिए मिटाना है। अपना मानना है कि न सोनिया-राहुल-प्रियंका और न कपिल सिब्बल एंड जी-23 नेताओं को समझ है कि नरेंद्र मोदी-संघ परिवार के मकसद में कैसी दीर्घकालीन राजनीति छुपी हुई है और उसमें देश के आइडिया व अस्तित्व के गंभीर पहलू भी हैं। परिवार की नासमझी अपनी जगह है तो कपिल सिब्बल, गुलाम नबी, आनंद शर्मा याकि दुखी-अंसुतष्ट-सत्ता भूखे कांग्रेसी चेहरों और प्रशांत किशोर ले देकर सन् 2024 के चुनाव की जल्दी में हैं। वे इस रियलिटी को सोच नहीं पा रहे हैं कि बिना गांधी परिवार के न कांग्रेस रह सकती है, न उसका असली कांग्रेस या सबकी कांग्रेस का रूपांतरण संभव है और न मोदी को हरा सकने का विकल्प संभव।

क्यों? तब आजाद भारत की राजनीति पर गौर करें। सबको ध्यान रखना चाहिए कि 1969 में कांग्रेस की दो बैलों की जोड़ी जब बिखरी थी और इंदिरा गांधी के खिलाफ बगावत हुई व मोरारजी, कामराज, संजीवैय्या रेड्डी ने ‘सबकी कांग्रेस’ के ख्याल में जो ‘संगठन कांग्रेस’ नाम की पार्टी बनाई तो उसका क्या भविष्य हुआ? जगजीवन राम-बहुगुणा ने 1977 में कांग्रेस फॉर डेमोक्रेसी बनाई तो उनका और उनकी कथित असली कांग्रेस का क्या हुआ? ऐसे ही एक दफा नारायण दत्त तिवारी, अर्जुन सिंह ने अलग कांग्रेस बनाई तो क्या हुआ? ऐसे कई प्रयोग हुए। सुभाष चंद्र बोस से लेकर ममता बनर्जी, शरद पवार आदि कईयों ने विद्रोह किया। पार्टियां बनाईं लेकिन गांधी-नेहरू के खूंटे से बाहर होने के बाद एक भी कोई नेता व उसकी पार्टी राष्ट्रीय स्तर पर नहीं चली।

वह सब याद कराना त्रासद है तो अपने लोकतंत्र व राजनीति की कमियों का खुलासा भी है। सोचे, जब ऐसी रियलिटी है तो कपिल सिब्बल या ममता बनर्जी, शरद पवार को क्यों यह गलतफहमी पालनी चाहिए कि परिवारवादी कांग्रेस को खत्म करके या उसे दरकिनार करके नरेंद्र मोदी को हरा सकते हैं? या संघ परिवार के आइडिया ऑफ इंडिया के आगे अपने बूते नया-टिकाऊ विकल्प बना सकते हैं? संभव ही नहीं है। इससे उलटे 2024-2029 में लगातार भाजपा मजे से चुनाव जीतेगी। अगले दस सालों में ममता बनर्जी और उनकी तृणमूल कांग्रेस का अता-पता भी नहीं होगा। न ही महाराष्ट्र में अघाड़ी पार्टियां बचेंगी और न तेजस्वी या अखिलेश यादव या अरविंद केजरीवाल का हल्ला चलता हुआ होगा।

मैं फतवाई निष्कर्ष लिख दे रहा हूं। भारत के हर सुधी नागरिक को समझना चाहिए कि मोदी-शाह-संघ परिवार ने अखिल भारतीय स्तर पर भारत को दो पालों में बांट दिया है। एक पाला शुद्ध भक्त हिंदुओं का है, जिसमें 2024 आते-आते 40 प्रतिशत वोट होंगे और बाकी वोट गैर-हिंदू व सेकुलर होने की अलग पहचान, आईडेंटिटी के बावजूद बिखरे हुए होंगे। 140 करोड़ लोग और वे दो हिस्सों में मोदी जिताओ और मोदी हटाओ के दो पालों में। निश्चित ही 55-60 प्रतिशत वोट मोदी हटाओ की बहुसंख्या वाले। मगर ये विरोधी वोट इसलिए बेमतलब व जीरो हैसियत लिए हुए होंगे क्योंकि कपिल सिब्बल एंड पार्टी कांग्रेस को खत्म कर चुकी होगी तो प्रशांत किशोर नई कांग्रेस का कोई नया शॉपिंग मॉल लिए हुए होंगे। ममता-केजरीवाल अपने को राष्ट्रीय नेता मान उड़ते हुए होंगे तो मोदी-शाह महाराष्ट्र-झारखंड की विरोधी सरकारों में उथल-पुथल करवा कर, विधानसभा चुनावों से कांग्रेस का उत्तर भारत में पूरा सफाया करके विपक्ष में लड़ने की ताकत ही नहीं बचने देंगे। झूठ के नैरेटिव से क्षत्रप याकि ममता-अखिलेश-तेजस्वी मुस्लिमपरस्त तो केजरीवाल खालिस्तानी-खालिस्तानी के शोर में लिपटे हुए। मोदी सरकार इन सबकों ऐसे तोड़ेगी-मरोड़ेगी कि मजबूरन ओवैसी से लेकर, मायावती, केजरीवाल सब अलग-अलग लड़ मोदी हटाओ की चाहना वाले 55-60 प्रतिशत वोटों को छितरा देंगे।

क्या यह सिनेरियो सोनिया-राहुल, कपिल सिब्बल, ममता, केजरीवाल, प्रशांत किशोर, अखिलेश आदि को दिखलाई नहीं दे रहा होगा? क्या ये नेता इतना भी नहीं बूझ सकते हैं कि आपस में एक-दूसरे को हरा कर अपना स्पेस बनाना संभव है लेकिन सन् 2024 में नरेंद्र मोदी (या जैसे अभी चार राज्यों में) जीते तो उसके बाद प्रदेशों के चिडीमार नेताओं का सारा स्पेस धरा रह जाएगा। आपस में एक-दूसरे से लड़ कर भले छोटा-मोटा स्पेस बना लें लेकिन वह सब नरेंद्र मोदी के अंगूठे के नीचे!

इसमें मील के पत्थर जैसा मामला परिवार से कांग्रेस की मुक्ति का है। कल्पना करें कांग्रेस खत्म हो जाए। वह सन् 2024 का लोकसभा चुनाव लड़ने लायक नहीं रहे (इसका मिशन है और इस पर कल) तो कपिल सिब्बल-प्रशांत किशोर क्या विकल्प का नया स्पेस बना कर (नई धुरी बना कर) उससे सभी क्षत्रपों को जोड़ करके नरेंद्र मोदी को हरा सकेंगे? लोगों के जेहन में क्या ममता का चेहरा बनेगा या केजरीवाल का? क्या केजरीवाल 2014-15 जैसे तेवर लिए मोदी के खिलाफ बोलते हुए होंगे? कपिल सिब्बल, आनंद शर्मा, गुलाम नबी क्या नारा लगा सकते हैं कि मोदी हटाओ देश बचाओ? प्रशांत किशोर किसी भी एक्सवाईजेड नेता या पार्टी को उत्तर भारत में बतौर विकल्प मोदी विरोधियों के जहन में पैठा सकते हैं?

कतई नहीं! विपक्ष के लिए सन् 2024 का चुनाव कायदे से लड़ सकना तभी संभव है जब परिवारवादी कांग्रेस जिंदा रहे। परिवार के तीनों चेहरों को समझदार होना होगा तो उन नेताओं, पार्टियां को भी समझदारी बनानी होगी जो चाहते है मोदी को हटाना। 55-60 प्रतिशत मोदी विरोधी वोटों के सभी प्रतिनिधि चेहरों को पहले यह समझना होगा कि उनकी असुरक्षा, उनका पॉवर से दूर रहना मोदी-संघ परिवार व उनके आइडिया ऑफ इंडिया की वजह से है न कि विरोधी पाले में एक-दूसरी की धक्का-मुक्की याकि कांग्रेस बनाम आप बनाम सपा बनाम राजद बनाम बसपा के छोटे-छोटे स्वार्थों और ईगो से।

निश्चित ही समझ की कसौटी में सबसे पहले राहुल गांधी, प्रियंका और सोनिया गांधी को प्राथमिक तौर पर समझदार होना होगा। वे जाने कि वे कैसे सन् 2024 में चुनाव लड़ने लायक नहीं रह सकेंगे।(जारी)

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Written by rannlabadmin

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