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कहानी- पेपर नैपकिन (Short Story- Paper Napkin)

मामी-मामा उनके बच्चे सौम्य और राजुल, नाना-नानी इन सबसे वह आजकल बहुत प्रभावित है. कुछ मायनों में उसका ननिहाल ख़ास है. वहां के तौर-तरीक़ों से प्रेरित हो पेपर नैपकिन और टिशू पेपर पर प्रतिबंध लगा दिया है. कोई मेहमान आता है, तो नैपकिन मांगने की एवज में उसको मिष्ठी से वृक्षों की कटान पर लेक्चर सुनने को मिलता है…
“भई वाह! बिटिया, इस छोटी-सी उम्र में पर्यावरण से प्रेम वाक़ई काबिल-ए-तारीफ़ है.” ससुरजी के मित्र तो बाकायदा उसकी पीठ ठोंक कर गए हैं.
हालांकि मानसी को कभी-कभी लगता है कि उसका पर्यावरणीय प्रेम घर में सबका जीना मुहाल कर रहा है.

“भई वाह! बिटिया, इस छोटी-सी उम्र में पर्यावरण से प्रेम वाक़ई काबिल-ए-तारीफ़ है.” ससुरजी के मित्र तो बाकायदा उसकी पीठ ठोंक कर गए हैं.
हालांकि मानसी को कभी-कभी लगता है कि उसका पर्यावरणीय प्रेम घर में सबका जीना मुहाल कर रहा है.

“पापा, आपने बैग में रुमाल रखा?”
“हां रख लिया…”
“और टॉवल नैपकिन?”
“हां बाबा! वो भी रख लिया…”  मिष्ठी के सवाल से पापा कुछ झुंझलाए.
आठ साल की बिटिया मिष्ठी आजकल सब की नाक में दम किए है.
“दादी, अब से नो पेपर नैपकिन.”
“नेहा बुआ, आपकी पर्स में इतने टिशू पेपर क्यों है?” 
“कौन-सी बूटी सुंघा दी गई है इसको? टिशू और पेपर नैपकिन की ये दुश्मन हो गई… पहले ही जेब और बैग में सामान होता था अब रुमाल और हैंड टॉवल संभालो.”
मिष्ठी के पापा झुंझलाते, तो मिष्ठी कहती, “बस इक्कीस दिन पापा, मैंने सुना है इक्कीस दिनों में आदत पड़ जाती है. बिना टिशू और पेपर नैपकिन के काम चलाने की आदत पड़ ही जाएगी.” 
“भई, ग़लत क्या है… कोई अच्छी चीज़ सीख कर आई है, तो सपोर्ट करो.” दादाजी पोती के पक्ष में कहते, तो मानसी को बहुत अच्छा लगता है… वह जानती है कि मिष्ठी ननिहाल से आने के बाद  बदली-बदली सी क्यों है…
मामी-मामा उनके बच्चे सौम्य और राजुल, नाना-नानी इन सबसे वह आजकल बहुत प्रभावित है. कुछ मायनों में उसका ननिहाल ख़ास है. वहां के तौर-तरीक़ों से प्रेरित हो पेपर नैपकिन और टिशू पेपर पर प्रतिबंध लगा दिया है. कोई मेहमान आता है, तो नैपकिन मांगने की एवज में उसको मिष्ठी से वृक्षों की कटान पर लेक्चर सुनने को मिलता है…
“भई वाह! बिटिया, इस छोटी-सी उम्र में पर्यावरण से प्रेम वाक़ई काबिल-ए-तारीफ़ है.” ससुरजी के मित्र तो बाकायदा उसकी पीठ ठोंक कर गए हैं.
हालांकि मानसी को कभी-कभी लगता है कि उसका पर्यावरणीय प्रेम घर में सबका जीना मुहाल कर रहा है.
मिष्ठी का पेड़ों से प्रेम नया नहीं है. एक बार हरसिंगार का पेड़ कीड़े लग जाने के कारण माली ने काट दिया, तो मिष्ठी ने दो दिन अफ़सोस मनाया. मिष्ठी की इसी संवेदनशीलता को उसके नाना ने पहचाना और उसकी ऊर्जा का प्रवाह उस ओर मोड़ा, जो कल को बेहतर बना सकता है.

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आज से पहले कई बार मानसी ने महसूस किया था कि मिष्ठी में शो ऑफ करने की आदत पनप रही है. दो-तीन कमरों में सिमटा मानसी का मायका और पांच-छह कमरों वाले दो मंज़िले ससुराल के मकान का फ़र्क़ समझना ठीक है, पर उसको जाने-अनजाने जताना मानसी को पसंद नहीं था… पर मिष्ठी को अपने मामा-मामी के बच्चों के सामने अपने घर का वैभव जताने में बहुत सुकून मिलता है.
“हमारे नए गेस्टरूम वाले वॉशरूम में पापा ने हाथ पोंछने के लिए वैसे ही टिशू पेपर का डिस्पेंसर लगवाया है जैसे एयरपोर्ट और बड़े बड़े होटल में लगा होता है.”
मिष्ठी ननिहाल में अपने ममेरे भाई-बहन सौम्य और राजुल से कहती तो उनकी आंखे आश्चर्य से फैल जाती… और वह और बढ़-चढ़कर बताने लगती, “और क्या एकदम नरम मुलायम… टिशू पेपर निकलते है उससे.” 
मिष्ठी की बातें सुनकर राजुल और सौम्य कभी आश्चर्य करते, तो कभी संकोच से सिमट जाते.
दादा-दादी के घर में टिशू पेपर और पेपर नैपकिन इफ़रात में जहां-तहां रखे रहते हैं, पर ननिहाल में तो स्नैक्स इत्यादि खाने के बाद हाथ धोने का रिवाज़ था.
“मामी पेपर नैपकिन दो…” नाश्ते के समय मिष्ठी मांगती, तो मामी दुलार से बोलती, “पेपर नैपकिन तो है नहीं मिष्ठी रानी…” 
“पर ये बहुत ऑयली है…” मिष्ठी मुंह बनाकर बोलती, तो मामी हंसकर कहतीं, “अरे घर भर में दस चक्कर लगाओ सब हजम होगा… फिर कचौड़ी है, तो ऑयली तो होगी ही…”
पर उसने तो बुआ और दादी को परांठे-कचौड़ी पर लगा घी-तेल  पेपर नैपकिन से सुखाते देखा था, “एक बार घी लगाओ और फिर सुखाओ… ये बात तो मुझे कभी समझ न आई. अरे सुखाना है, तो कम तेल लगाओ.” मानसी की मम्मी यानी मिष्ठी की नानी बड़बड़ाती.
“अब मैं हाथ का तेल कैसे साफ करूँ नानी…” मिष्ठी पूछती, तो  “जा जाकर हाथ धो आ…” जवाब मिलता.
टीवी पर कार्टून देखते हुए हाथ धोने के लिए उठना मिष्ठी को बहुत खलता. 
“हमारे यहां थे पेपर नैपकिन… मम्मी रखकर भूल गई होंगी.” भाभी की बिटिया राजुल ‘पेपर नैपकिन नहीं है’ इस बात पर सफ़ाई देती… राजुल और सौम्य भी पेपर नैपकिन नही है, इस बात को लेकर शर्मिंदा होने लगे थे.
हमारे घर में वो तौर-तरीक़े क्यों नहीं है, जो मिष्ठी के घर पर हैं. ऐसा भाव भाई-भाभी के बच्चों में पसरता देख मानसी ने एक दिन अकेले में मिष्ठी को धमकाया.
“बात-बात में हमारे घर में ये… हमारे घर में वो… यह सब कहने की ज़रूरत नही… याद रखो, ये मेरा भी घर है.”
“तो आप अपने घर के लिए टिशू पेपर क्यों नही ले आती? नाश्ता करते समय टीवी पर कार्टून देखने का मज़ा ही किरकिरा हो जाता है.”  मिष्ठी की ये बात उसके नाना यानी मानसी के पापा ने सुनी, तो वह शाम को सब्ज़ी और दूध के साथ पेपर नैपकिन के दो पैकेट लेकर आए और मिष्ठी को पकड़ाकर बोले, “बिटिया रानी ये तुम्हारे लिए है.”
“क्यों दादू हमारे लिए क्यों नही?” मिष्ठी की हमउम्र अनुभा भाभी की बेटी राजुल ने ईर्ष्या भाव से  पूछा.
तो वह दुलार से बोले, “अब मिष्ठी की आदत है, पर हमारी राजुल को ये बुरी आदत नहीं है.”
“नानाजी पेपर नैपकिन इस्तेमाल करना, तो अच्छी आदत है. वहां तो डायनिंग टेबल पर रखा रहता है, किचन में भी है और मम्मी की ड्रेसिंग टेबल पर भी…” मिष्ठी ठुनक कर बोली, तो सौम्य ने भी उत्साह में उसके सुर से सुर मिलाया,
“और हां दादू… जैसे एयरपोर्ट  के वॉशरूम में टिशू पेपर की मशीन होती है न… वैसे बुआ के घर मे गेस्टरूम के वॉशरूम में है.”  
सौम्य की बात पर पापा मुस्कुरा दिए. फिर मिष्ठी के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा, “अच्छा, एक दिन में तुम कितने नैपकिन का इस्तेमाल करती हो.” मिष्ठी ने अपनी आंखें नचाई कुछ सोचा फिर, “शायद छह, सात या फिर इससे भी ज़्यादा…”
“अगर सात के हिसाब से लें तो महीने के तीस दिन के हिसाब से दो सौ दस… अब ज़रा इस पैकेट में देखकर बताओ कितने टिशू पेपर है?”
“फोर्टी एट…” मिष्ठी झट से बोली.
“यानी एक पैकेट में चार दर्जन  के हिसाब से एक महीने में लगभग साढ़े चार पैकेट और साल में हुए तकरीबन फिफ्टी थ्री…”
“बाप रे साल में इतने पैकेट..” सौम्य आश्चर्य से मुंह पर हाथ धरते हुए बोला.

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पापा मिष्ठी का ट्रीटमेंट कैसे करना चाहते है, यह अब तक मानसी को समझ मे आ गया था.
“पेपर नैपकिन के लिए कितने पेड़ों को काट दिया जाता है न पापा…” मानसी बोली, तो पापा मुस्कुराए… और बोले, “इसीलिए तो हम पेपर नैपकिन इस्तेमाल नही करते…”
“मैं भी चाहती हूं मेरी ससुराल में पेपर नैपकिन इस्तेमाल न हो, पर वहां पर सब लोग पर्यावरण के लिए इतने सेंसिटिव नहीं हैं…” कहकर उसने तिरछी निगाह से मिष्ठी को देखा. 
“पर मम्मी बार-बार हाथ धोने से भी तो पानी कितना वेस्ट होता है.”
“पर मिष्ठी, पेपर नैपकिन यानी काग़ज़ बनाने की प्रक्रिया में तो लाखों लीटर पानी की बर्बादी होती है.”
पापा अच्छे से होमवर्क करके बैठे थे, इसलिए बता रहे थे, “जानते हो बच्चों, पहले सूखे पेड़ को काटा जाता था, पर जब से इसका इस्तेमाल बढा है, तब से हरे-भरे पेड़ भी काटे जा रहे हैं.”
“हमारे घर में तो ख़ूब इस्तेमाल होते हैं टिशू पेपर…” कहते वक़्त मिष्ठी की आंखों में वही शर्मिंदगी थी, जो कुछ देर पहले राजुल की आंखों में पेपर नैपकिन न होने की वजह से थी.
“हमारे यहां तो बिल्कुल इस्तेमाल नहीं होते.” कंधे उचकाते हुए सौम्य के स्वर में वैसा ही दर्प था जैसा गेस्टरूम के वॉशरूम में टिशू पेपर वाला डिस्पेंसर लगाने की बात बताते हुए मिष्ठी की आंखों में था.
“देखा तभी हमारे घर मे पेपर नैपकिन नहीं हैं.” राजुल ने घर मे पेपर नैपकिन न होने की भड़ास निकालते हुए  मिष्ठी को चिढ़ाया.
“अच्छा घर पर तो नहीं है, पर बाहर डिस्पेंसर से ज़रूरत से ज़्यादा नैपकिन निकालकर सब मटियामेट करते देखा है मैंने…” अनुभा भाभी ने राजुल को टोका पर मिष्ठी मुंह बनाए बैठी रही.
“पापा थैंक्स… इलाज मैं भी ढूंढ़ रही थी पर कैसे और क्या समझ नही पा रही थी…” मानसी फुसफुसाई.
“मुझे नहीं चाहिए, ये आप दुकान में वापस कर आओ.” मिष्ठी ने पेपर नैपकिन का पैकेट अपने नाना को थमाया, तो अनुभा भाभी बोली, “वापस करने की ज़रूरत नहीं है. कल को कोई और आया जिसका काम इसके बगैर न चलता हो, तब  काम आ जाएंगे.”
“पर इसके बगैर काम चलाना इतना मुश्किल क्यों है. इसका अल्टरनेटिव ढूंढ़कर उसे बताओ, तो क्या वो नहीं समझेगा.” 
मानसी ने नाटकीय अंदाज़ में भाभी से कहा, तो वह बोली,  “ऑल्टरनेटिव तो बहुतेरे हैं. हमारी मिष्ठी तो ढूंढ़ लेगी अब हर कोई इस जैसा समझदार नहीं होता न…” मिष्ठी मामी की बात पर फूल गई. अब बड़ी ज़िम्मेदारी उसे निभानी है कुछ ऐसा तेजस्वी भाव उसके चेहरे से झलका.
“जाओ रख दो संभालकर पर कोशिश करना रखे ही रहें.” कहकर पापा हंस दिए. फिर गंभीरता से बोले, “बेटा, मैं तो बस इनका नज़रिया बदलना चाहता था. पेपर नैपकीन होना न होना संपन्नता का मानक न होकर संवेदशीलता का हो…”
“इसके अलावा भी आपने उसे बहुत कुछ समझाया है पापा…” वह धीमे से बुदबुदाई और सहसा विचारों का घेरा तोड़कर बाहर आई, तो देखा सासू मां झुंझला रही थी, “जब से अपने ननिहाल से आई है बौरा गई है. सारे घर के नैपकिन हटवाकर तौलिए रख दिए. अब इन्हें धोते-सुखाते फ़िरो…” 
एक बार मन में आया सासू माँ से मिष्ठी की सनक के पीछे की कहानी कह दे, पर तभी विचार बदल दिया जब उन्हें नेहा से कहते सुना, “वैसे ये कहती तो ग़लत नहीं है. इन कुछ सालों से ही हम पेपर नैपकिन पर निर्भर हुए है, वरना तो तौलिए भी कहां होते थे पुराने कपड़ो के टुकड़े काटकर ही हाथ पोछे जाते थे…”
“हां, और अब इसे डिस्करेज न करो… पेड़ कट रहे हैं… पेड़ कट रहे हैं… कहकर उसने मुझे ऐसा इमोशनल किया कि मैंने पर्स से टिशू पेपर हटा दिए… पेड़ों के लिए ‘आई सपोर्ट मिष्ठी’…”  नेहा ने थंबस अप करके मिष्ठी का उत्साह बढ़ाया, तो मानसी मुस्कुरा दी.

मीनू त्रिपाठी

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Photo Courtesy: Freepik

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Written by rannlabadmin

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